-गुजरात दंगों में मोदी की मदद के लिए विरोध हुआ था
-अब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में असंतुष्ट हावी होंगे
ज्ञानेंद्र सिंह नई दिल्ली। गांधी परिवार के “चाणक्य” कहे जाने वाले अहमद पटेल को गुजरात में लोग “बाबू भाई” के ही नाम से जानते थे। मगर 1989 के चुनाव में संघ कार्यकर्ताओं ने उन्हें बाबू भाई से “अहमद भाई” बना दिया था। तब उनके विरोधी मात्र 18 हजार वोटों से उन्हें शिकस्त दे पाए थे। जबकि अहमद भाई ने गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का पार्टी स्तर पर साथ दिया था जिसके चलते मनमोहन मंत्रिमंडल के कई मंत्री भी उनका विरोध कर रहे थे।
26 वर्ष की आयु में अहमद पटेल ने पहला लोकसभा का चुनाव 68 हजार वोटों से जीता था, दूसरा चुनाव 1 लाख 20 हजार और तीसरा चुनाव 1, 60 हजार से ज्यादा मतों से जीता था। उस समय भरूच लोकसभा क्षेत्र के लोग उन्हें “बाबू भाई” के नाम से जानते थे। जब 1989 में चौथा चुनाव लड़े तो उनके पोस्टर बाबू भाई के ही नाम से लगाए गए थे मगर संघ कार्यकर्ताओं ने उनके पोस्टर रातो रात अहमद भाई के नाम से लगवा दिए थे। इस तरह के तमाम तिकड़म अपनाने के बाद अहमद पटेल के विरोधी मात्र 18 हजार वोटों से उन्हें शिकस्त दे पाए थे। यह उनका आखिरी चुनाव था और उसके बाद वह न केवल गांधी परिवार के निकटतम होते चले गए बल्कि लगातार पांच बार राज्यसभा से सांसद बने।
गुजरात में सन 2002 के दंगों में अहमद पटेल की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण एवं सूझबूझ वाली थी और उन्होंने शांति और सद्भाव के साथ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया था। सन 2004 में डॉ मनमोहन सिंह सरकार के दौरान कांग्रेस का एक हिस्सा तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध कार्यवाही के पक्ष में था और लगातार दबाव भी बना रहा था। मगर अहमद पटेल ने बड़े ही कूटनीतिज्ञ तरीके से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को मोदी के समर्थन में समझाने में सफल रहे थे और उन्होंने अपने दोनों नेताओं से कहा था कि कानून को अपना काम करने दीजिए और परिणाम आने तक हमें शांत रहना चाहिए। पटेल की इस पहल का कांग्रेस के कई नेताओं ने विरोध किया था। मगर पटेल ने कांग्रेस के विरोधियों को गांधी परिवार पर हावी नहीं होने दिया था।
इसीलिए पटेल को गांधी परिवार का “चाणक्य” कहा जाने लगा, जब भी कोई बड़े स्तर पर समस्या आई तो उन्होंने एक संकटमोचक की भूमिका निभाई। पहले राजीव गांधी फिर सोनिया गांधी और अब राहुल एवं प्रियंका गांधी के अति निकटतम लोगों में उनकी शुमार होती गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव के समय में भी गांधी परिवार के समक्ष कई चुनौतियां आई मगर पटेल के रहते कुछ भी गलत नहीं होने पाया था। नरसिंह राव एवं सोनिया के बिगड़ते रिश्तों के बीच पटेल ने एक सेतु का काम किया था और गांधी परिवार को बिखरने से बचाया था।
अगस्त माह में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के दौरान गांधी परिवार के विरोधी सक्रिय हो गए थे और कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से पूर्व एक ऐसा पत्र जारी कर दिया गया था, जिसमें 23 नेताओं ने हस्ताक्षर किए थे और कांग्रेस के अंदर चल रहा घमासान सार्वजनिक हो गया था, इससे पार्टी की बड़ी किरकिरी हुई थी। जिसका विरोध राहुल गांधी ने किया था बाद में अहमद पटेल ने दोनों पक्षों के बीच तालमेल स्थापित करवाया था।
लेकिन अब माना जा रहा है कि अहमद भाई की कमी कांग्रेस से ज्यादा गांधी परिवार को अखरेगी। अगले महीने से कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही अहमद भाई का न होना साफ नजर आएगा और कोई बड़ी बात नहीं है कि अब वो 23 नेता और ज्यादा मुखर हो जाएं। जिसकी आहट राज्य सभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के बयानों से गांधी परिवार को मिल चुकी है। अब देखना होगा कि गांधी परिवार अहमद पटेल के विकल्प के तौर पर किसे आगे करता है काग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में इस बार पार्टी का अंदरूनी असंतोष खुलकर सामने आएगा, ऐसी संभावना बढ़ गई हैं।