निजी स्वतंत्रता पर बहुत संजीदा है न्याय पालिका

निजी स्वतंत्रता पर बहुत संजीदा है न्याय पालिका नसीहत भी देती है कि खुद भी परिस्थितियों से लड़ना सीखना होगा। न्यायपालिका ने कहा-लव मैरिज किया है तो सामाजिक दुश्वारियों से निपटना सीखो कानून हमेशा आपकी रक्षा के लिए नहीं खड़ा रहेगा, कुछ आप भी करो- हाईकोर्ट हाईकोर्ट ने कहा, ऐसे रिश्तों में आपसी विवाद व झगड़ों की भी है पर्याप्त गुंजाइश दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि पत्नी अपने पति की संपत्ति नहीं, मर्जी की मालिक वादा करके लिव-इन रिलेशन में रहना और बाद में शादी नहीं करना अपराध नहीं लव मैरिज और लिव इन रिलेशन में बहुत फर्क नहीं रहा, कानून में बदलाव जरूरी उत्तराखंड राज्य में अब लिव-इन रिलेशन का रजिस्ट्रेशन किया गया है अनिवार्य

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लखनऊ। देश की न्याय पालिका इन दिनों प्रोग्रेसिव हो गई है। वह न सिर्फ प्रेम विवाह बल्कि लिव-इन रिलेशनशिप पर लीक से हटकर फैसले दे रही है। वैसे भी प्रेम विवाह और लिव इन रिलेशन दोनों ही दो वयस्क जोड़ों की मर्जी का मामला होते हैं। दोनों मामलों में अंतर ये है कि एक रिश्ते को, जिसे प्रेम विवाह कहते हैं, कानूनी जामा पहना दिया जाता है। और दूसरे रिश्ते को, जिसे लिव इन रिलेशन कहते हैं, वाच पीरियड में रखा जाता है। लिव-इन के रिश्ते में शादी तो नहीं होती है पर एक साथ रहने की दो वयस्कों की मंशा होती है। वे चाहते हैं कि वे पहले एक-दूसरे को समझ लें और उसके बाद शादी की सोचें। किंतु इसके चलते सामाजिक दुश्वारियां भी आ रही हैं। लिव-इन में बच्चे पैदा हो रहे हैं। ऐसे में उन बच्चों के कानूनी अधिकारों के बारे में भी चर्चा होने लगी है।

ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि लिव-इन में पैदा हुए बच्चे मां-बाप से वे सारे अधिकार प्राप्त कर सकते हैं जो एक शादीशुदा मां-बाप से उन्हें मिलते। यानी लव मैरिज और लिव इन रिलेशनशिप को कानूनी संरक्षण प्राप्त है। हालांकि लव मैरिज के एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट जोड़ों को समाज का मुकाबला खुद करने की नसीहत भी देता है। उधर दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में यहां तक कह दिया है कि पत्नी अपने पति की संपत्ति नहीं है, मर्जी की मालिक है। अगर वह किसी गैर मर्द के साथ रिलेशन में है तो यह अपराध नहीं है। इसीलिए हाईकोर्ट ने अपने कुछ फैसलों में विवाह कानूनों में वर्तमान परिवेश के हिसाब से बदलाव किए जाने की भी सिफारिश की है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का मानना है कि अगर आपने अपनी मर्जी से लव मैरिज की है तो आपको समाज की तरफ से होने वाली दुश्वारियां झेलने की हिम्मत भी रखनी चाहिए। हाईकोर्ट का कहना है कि इस अंदेशे में कि परिजन आपके खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकते हैं, आप कोर्ट के पास न आएं, तब तक कि जब तक आपके डर का कोई वाजिब कारण न हो। कोर्ट ने कहा कि आपको अपने बूते परिस्थितियों का सामना करना भी सीखना होगा। कोर्ट का मानना है कि अगर आप इतना बड़ा कदम उठा रहे हैं तो यह भी मानना होगा कि अब आप अपना अच्छा-बुरा समझने की स्थिति में आ गए हैं।‌ तब आपको ये भी जानना होगा कि आप लव मैरिज के बाद की सामाजिक दुश्वारियां का कैसे सामना करेंगे। क्योंकि कोर्ट या पुलिस हमेशा आपके पीछे नहीं खड़ी रहेगी। पर हां अगर परिस्थितियां ऐसी हैं कि आपको वास्तविक रूप से संरक्षण की जरूरत है, तो हम आपकी मदद कर सकते हैं। उधर सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार लव मैरिज और लिव इन रिलेशनशिप को संरक्षण प्रदान करते हुए सरकार को यह निर्देश दिया है कि वह ऐसे लोगों को संरक्षण प्रदान करें। पर कई जोड़े सुप्रीम कोर्ट की इसी व्यवस्था का अनुचित लाभ उठाने लगते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में आए लव मैरिज के एक ऐसे ही मामले में हाईकोर्ट की पीठ ने कहा कि यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में संरक्षण प्रदान किया है किंतु हर मामले के लिए नहीं। आपकी चिंता वास्तविक होनी चाहिए। और यह टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने लव मैरिज किए हुए जोड़े को संरक्षण देने से इनकार कर दिया। यही हाल लिव-इन रिलेशनशिप का भी है।

उत्तराखंड सरकार ने तो राज्य में यूसीसी लागू करने के साथ ही यह व्यवस्था कर दी है कि राज्य क्षेत्र में लिव-इन में रहने वाले जोड़ों को इसका रजिस्ट्रेशन कराना होगा। उत्तराखंड सरकार का मानना है कि लिव-इन रिलेशनशिप में कई बार बच्चे भी पैदा हो जाते हैं, और उन बच्चों के संरक्षण की जिम्मेदारी फिर हमारी हो जाती है। ऐसे में यदि हमारे पास ये रिकॉर्ड रहेगा कि लिव इन रिलेशन में रहने वाले जोड़े कौन हैं, तो हमें बच्चों को संरक्षण देने में आसानी रहेगी। इसलिए राज्य सरकार ने यूसीसी में लिव-इन रिलेशन का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया है। उधर उड़ीसा हाई कोर्ट का तो मानना है कि प्रेम विवाह अक्सर आसानी से हो सकने वाले आपसी विवादों के कारण भी बनते हैं। इसलिए ऐसे मामलों में बहुत सोच समझ कर निर्णय देने की जरूरत होती है।

अभिभावक की मर्जी के खिलाफ हुई शादी तो कानून का संरक्षण नहीं : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लता सिंह बनाम यूपी सरकार व अन्य के मामले में कहा है कि ऐसी जोड़ियों को पुलिस की तरफ से कोई सुरक्षा नहीं मिलेगी जिन्होंने अभिभावक की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी की हो। कोर्ट ने यह टिप्पणी उक्त दंपति द्वारा सुरक्षा की मांग वाली याचिका पर निर्णय करते हुए की। कोर्ट ने स्पष्ट करते हुए कहा कि अगर बहुत जरूरी हुआ तो दंपति को सुरक्षा प्रदान किया जा सकता है। पर किसी खतरे की आशंका की स्थिति में ऐसे दंपति को एक-दूसरे का समर्थन करना और समाज का सामना करना भी सीखना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि जो जोड़े माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध अपनी मर्जी से विवाह करते हैं, वे अधिकार के रूप में पुलिस सुरक्षा का दावा नहीं कर सकते। न्यायमूर्ति सौरभ श्रीवास्तव के समक्ष पेश इस याचिका में लव मैरिज करने वाले जोड़े द्वारा उन्हें पुलिस सुरक्षा देने और दूसरों को उनके विवाहित जीवन में हस्तक्षेप से रोकने का निर्देश देने की मांग की गई थी। कोर्ट ने माना कि जोड़े को कोई गंभीर खतरा नहीं है। अदालत ने कहा कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के आलोक में उन्हें पुलिस सुरक्षा प्रदान करने के लिए आदेश पारित करने की कोई जरूरत नहीं है। कोर्ट का मानना है कि अदालतों का उद्देश्य ऐसे युवाओं को सुरक्षा प्रदान करना नहीं है, जो अपनी इच्छा से शादी करने के लिए भाग गए हैं। कोर्ट ने कहा कि किसी वास्तविक खतरे की अनुपस्थिति में, इन जोड़ों को एक-दूसरे का समर्थन करना और समाज का सामना करना सीखना चाहिए। अदालत ने यह भी माना कि इसका एक भी प्रमाण नहीं है कि याचियों में से किसी के रिश्तेदार उन पर शारीरिक-मानसिक हमला कर सकते हैं। कोर्ट ने यह भी पाया कि याचियों ने रिश्तेदारों के कथित दुर्व्यवहार के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए पुलिस में कोई अर्जी भी नहीं दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि याचिका में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 175 (3) के तहत शुरू किसी कार्रवाई का उल्लेख भी नहीं है, और न औपचारिक अनुरोध के जवाब में पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने का उल्लेख ही है। कोर्ट ने कहा कि यह व्यवस्था न्यायिक मजिस्ट्रेट को पुलिस को मामले की जांच करने का आदेश देने का तब अधिकार देती है जब पुलिस एफआईआर दर्ज करने या जांच में विफल रहती है।

वादा कर शादी न करना अपराध नहीं : उधर उड़ीसा हाईकोर्ट ने भी मानसिक क्रूरता और ‘विवाह के अपूरणीय विघटन का हवाला देते हुए एक व्यक्ति को तलाक दे दिया। उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति के खिलाफ़ लगाए गए उन आरोपों को भी खारिज कर दिया,जिस पर शादी का झूठा वादा कर एक महिला का नौ साल तक लगातार यौन संबंध बनाने का आरोप था। इस पर न्यायमूर्ति संजीव कुमार पाणिग्रही की एकल पीठ ने कहा कि रिश्ते का विवाह में परिणत न होना निजी शिकायत का स्रोत हो सकता है, लेकिन अपराध नहीं। हाईकोर्ट ने कहा कि प्रेम विवाह ‘आसानी से किए जाने वाले’ वैवाहिक विवाद का कारण बनते हैं। इसलिए ऐसे मामलों में सिर्फ कानून के आधार पर ही नहीं, परिस्थितियों के आधार पर भी बहुत सोच समझकर निर्णय की जरूरत होती है।

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि पत्नी, पति की संपत्ति नहीं : दिल्ली हाई कोर्ट ने पिछले दिनों एक व्यक्ति को व्यभिचार के एक मामले में आरोप मुक्त कर दिया और कहा है कि दो बालिग अपनी मर्जी से सम्बंध बना सकते हैं। इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी में वर्णित धारा 497 के अपराध को असंवैधानिक मानकर उसे 2018 में ही अवैध कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि महिला के प्रति का यह तर्क कि, ऐसा उसकी मर्जी के खिलाफ हुआ है, इसलिए अपराध है, गलत है। कोर्ट ने कहा कि महिला पति की संपत्ति नहीं है, वह अपना जीवन अपने तरीके से जीने की हकदार है। यह मामला उस महिला के पति ने दायर किया था, जिसके साथ दूसरे व्यक्ति के कथित रूप से संबंध थे। मामले में पति ने आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी याचिका कर्ता के साथ व्यभिचार संबंध में थी। इसके लिए वे दूसरे शहर में चले गए, जहां वे होटल में साथ रुके और पति की सहमति बिना उनके बीच संबंध बने। इस मामले में मजिस्ट्रेट ने आरोपी को आरोप मुक्त कर दिया था। उसके बाद सत्र अदालत ने समन भेजा था। इसी के खिलाफ दाखिल याचिका पर हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के हवाले से आरोपी को दोषमुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत व्यभिचार के अपराध को असंवैधानिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि पुराने कानून में प्रावधान था कि संबंधित अपराध केवल विवाहित महिला के पति की सहमति न होने पर ही माना जाता था। हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया कि महिला को पति की संपत्ति माना जाना और इसके विनाशकारी परिणाम महाभारत में अच्छी तरह से वर्णित हैं। इसमें द्रौपदी को जुए के खेल में किसी और ने नहीं, बल्कि उसके पति युधिष्ठिर ने दांव पर लगा दिया था। और जुए में हार के बाद महाभारत का युद्ध हुआ। किसी महिला को संपत्ति के रूप में मानने की मूर्खता के परिणाम को प्रदर्शित करने के लिए ऐसे उदाहरण मौजूद होने के बावजूद, हमारे समाज को यह तभी समझ में आया, जब शीर्ष कोर्ट ने इसको अवैध घोषित किया।

सुप्रीम कोर्ट से लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता : भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दी है। कोर्ट ने कहा है कि यह अवैध नहीं है। कोर्ट के अनुसार यद्यपि यह कानूनी रूप से विवाह के समतुल्य नहीं है, पर इसे संविधान के अनुच्छेद 21 में निजता के अधिकार और अपने पसंद की स्वतंत्रता द्वारा संरक्षित किया जाता है। शीर्ष कोर्ट के अनुसार वैवाहिक स्थिति से परे, अपनी पसंद के साथी के साथ सहवास करने का दो वयस्क व्यक्तियों का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने “विवाह की प्रकृति में संबंध” की अवधारणा को मान्यता दी है, जो दीर्घकालिक और सहमति से लिव-इन संबंधों को कुछ कानूनी अधिकार और जिम्मेदारियाँ प्रदान करता है। कुछ मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशन वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा अधिनियम में भरण-पोषण और सुरक्षा भी प्रदान की है। कोर्ट ने उन्हें कुछ परिस्थितियों में पत्नी के समान भी माना है। कोर्ट ने इस दौरान पैदा हुए बच्चों को भी संरक्षण प्रदान करते हुए कहा है कि ऐसे बच्चे भी माता-पिता से संपत्ति प्राप्त कर सकते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मान्यता देते हुए कहा है कि ये अवैध या अपराध नहीं हैं, हालांकि ये विवाह के बराबर भी नहीं हैं। कोर्ट ने रिश्तों में निजी स्वतंत्रता और पसंद के महत्व पर जोर दिया है, और कहा है कि सहमति से बनाए गए रिश्ते भारतीय संविधान के तहत संरक्षित हैं। यदि कोई पुरुष और महिला काफी समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं और उनके बच्चे हैं, तो कोर्ट यह भी मान सकता है कि वे विवाहित हैं। शीर्ष कोर्ट के फैसले अंतर जातीय और अंतर धार्मिक लिव-इन संबंधों की रक्षा करने में भी सहायक रहे हैं। वैसे भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो लिव-इन रिलेशन या विवाह-पूर्व यौन संबंधों को रोकता हो। संविधान भी अनुच्छेद 21 में निजता के अधिकार की गारंटी देता है, जो न्यायपालिका द्वारा संरक्षित मौलिक अधिकार है। ये लिव-इन रिलेशनशिप की कानूनी स्थिति को और मजबूत करता है। शीर्ष कोर्ट का यह भी मानना है कि औपचारिक विवाह के बिना सहवास के मामले घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते हैं।

उत्तराखंड में लिव-इन रिलेशनशिप की स्थिति : उत्तराखंड राज्य में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के अनुसार सभी लिव-इन रिलेशनशिप का पंजीकृत होना अनिवार्य है। चाहे वह उत्तराखंड के निवासी हों या अन्य राज्यों के निवासी हों। दोनों ही इस कानून के अधीन हैं। पंजीकरण प्रक्रिया में सहवास के 30 दिनों के भीतर संबंध का विवरण प्रस्तुत करना शामिल है। पंजीकरण न कराने या गलत जानकारी देने पर छह महीने तक कैद और ₹25,000 जुर्माना हो सकता है। प्रावधानों के अनुसार लिव-इन रिलेशन में पैदा हुए बच्चों को वैध माना जाता है। साथ ही लिव-इन की महिला परित्याग के मामले में भरण-पोषण की मांग भी कर सकती है। पर यूसीसी निषिद्ध संबंधों को भी रोकता है। निषिद्ध संबंधों के मानक के लिए धार्मिक नेताओं से अनुमति की आवश्यकता होती है। कानून के अनुसार लिव-इन जोड़ों को अपने रिश्ते को उस रजिस्ट्रार के पास पंजीकृत कराना होता है, जिसके अधिकार क्षेत्र में वे रह रहे हैं। जोड़े ऑनलाइन (आधार सत्यापन और ओटीपी का उपयोग करके) अथवा स्थानीय रजिस्ट्रार के आफिस माध्यम से आफ़लाइन पंजीकरण भी कर सकते हैं। आवश्यक दस्तावेजों में निवास-आयु प्रमाण पत्र और पंजीकरण शुल्क शामिल हैं।

आधुनिक परिवेश में विवाह कानून बदलने की अनुशंसा : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आधुनिक परिस्थितियों के लिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में संशोधन की वकालत की है। कोर्ट ने कहा कि शिक्षा, वित्तीय स्वतंत्रता, आधुनिकीकरण जैसे कारक अब विवाह को प्रभावित करने लगे हैं। हाईकोर्ट ने ये टिप्पणी आधुनिक परिस्थितियों को संबोधित करने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में संशोधन की जरूरत पर बल देते हुए की। कोर्ट ने कहा कि विवाह के विघटन को तलाक देने के आधार के रूप में भी शामिल करने की मांग पर विचार किया जाना चाहिए। ऐसे ही एक मामले में हाईकोर्ट ने एक व्यक्ति को तलाक देते हुए, आधुनिक परिस्थितियों के अनुसार हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। कोर्ट ने प्रेम विवाह को आसानी से किया जाने वाला कार्य भी कहा।‌ और कहा कि ऐसे संबंधों के परिणाम स्वरूप वैवाहिक विवाद पैदा होते हैं। जस्टिस विवेक कुमार बिड़ला और डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने विशेष रूप से भारत सरकार से इसके मद्देनजर हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करने की सिफारिश की है। हाईकोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में तलाक देने के लिए विवाह के अपूरणीय विघटन को आधार के रूप में शामिल करने की बात कही है।

कानून बदलना अब जरूरी हो गया : इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में लीगल प्रैक्टिस कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता अजय कुमार तिवारी का कहना है कि लव मैरिज और लिव इन रिलेशनशिप में अब कोई ज्यादा अंतर नहीं रह गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि लव मैरिज को कानूनी मान्यता मिल जाती है और लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनन शादी नहीं माना जाता है। वैसे प्रैक्टिकली देखा जाए तो दोनों मामलों में महिला और पुरुष के अधिकार शादीशुदा जोड़ों की तरह ही होते हैं। यहां तक कि इस रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों को भी वही कानूनी अधिकार मिलते हैं जो उन्हें शादीशुदा माता-पिता से मिलते। एडवोकेट अजय तिवारी कहते हैं कि ऐसे में अब कानून में भी संशोधन हो ही जाना चाहिए। क्योंकि बदलते परिवेश, बढ़ती आधुनिकता, रोज आते जा रहे संचार के साधन लोगों को और आधुनिक और उन्मुक्त विचारों वाला बना रहे हैं। ऐसे में लव मैरिज और लिव इन रिलेशनशिप में संबंधों का बनना और बिगड़ना आम बात हो गई है। इसलिए कानून को भी वर्तमान परिवेश के हिसाब से ढल जाना चाहिए। और यह काम जितनी जल्दी हो जाएगा, उतनी ही दुश्वारियां कम होंगी। उन्होंने कहा कि हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने कई मामलों में अदालतों को राह दिखाई है, पर इनका कानून बन जाना भी अब जरूरी हो गया है। अजय तिवारी ने कहते हैं कि हालांकि लव मैरिज और लिव इन रिलेशनशिप में देखा जाए तो अधिकारों में कोई खास अंतर नहीं है। फिर भी एक बार को लव मैरिज को आदमी आदर की निगाह से देखता है, पर लिव इन रिलेशनशिप को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। इसलिए अब कानून में बदलाव जरूरी है।

अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक