मनुष्य के जीवन में नवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व

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नवरात्रि पर्व माता आदिशक्ति के नौ स्वरूपों को समर्पित होता है, इस पर्व का आध्यात्मिक महत्व समझने के लिए पुरूष-प्रकृति तथा उसकी क्रियाओं को समझना आवश्यक है। भगवान शिव जीव में आत्मा अर्थात चेतन रूपी पुरुष तत्व के ऊर्जा रूप में विराजमान रहते हैं तथा माता आदिशक्ति (पार्वती) प्रकृति तत्व की ऊर्जा के रूप में स्थित होकर जीव के जीवन यात्रा के लिये शरीर एवं अन्य वाह्य स्रेात की उपलब्धता सुनिश्चित करती है।

पुरुष एवं प्रकृति एक दूसरे के पूरक है और इन दोनो के आपसी सहयोग के बिना संसार में किसी वस्तु, स्थान अथवा जीव से संम्बन्धित सृजन, संचालन एवं परिवर्तन संबधी क्रिया-प्रतिक्रिया होना संभव नहीं है। चूँकि चेतन रूपी जीवात्मा स्थिर ऊर्जा तत्व है परन्तु प्रकृति रूपी ऊर्जा चंचल, गतिमान, परिवर्तनशील एवं इच्छारूप में स्थित होती है, ऐसे में जीवात्मा की जीवन यात्रा के लिए जो प्रकृति रूपी ऊर्जा उसके समीप होती है उसे संतुलित रखकर ही जीव अपनी जीवन यात्रा को उदेश्यपूर्ण बना सकता है अन्यथा उसका जीवन धीरे-धीरे विकृतिपूर्ण अर्थात् तमस् प्रधान होता जाता है।

प्रायः किसी भी जीव के लिए अपनी तमस् प्रधान प्रवृत्ति (प्रकृति) को परिवर्तित कर रजस अथवा सत्व प्रधान प्रवृत्ति की ओर वापस आना आसान नहीं हो पाता है। जिसके कारण उसे उन विकृतिपूर्ण कर्मो के भोग के लिए बार-बार किसी न किसी योनि में जन्म लेना होता है। इस बात को भगवान शिव एवं माता पार्वती से सम्बन्धित एक किवदंती के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है।

एक बार की बात है भगवान शिव (पुरुष तत्व) जब समाधि में लीन हो रहे थे तो उन्होने माता पार्वती (प्रकृति तत्व) से निवेदन किया कि उनके समाधिस्थ अवस्था में रहने तक वह उनके समीप रहकर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान दें, माता पार्वती ने उनके इस निवेदन को स्वीकार किया, परन्तु इसी दौरान कुछ दैत्यों एवं दानवों ने संसार में भयंकर उत्पात मचाना शुरू कर दिया जिस पर माता पार्वती ने सर्वप्रथम अपने सौम्य सतोगुणी स्वरूप में रहकर ही उन दैत्यों को बारम्बार शांत होने के लिए कहा परन्तु जब वह दैत्यगण शांत नहीं हुए तो उन्होंने तमोगुणी रूपी महाकाली का प्रचण्ड एवं रौद्र स्वरूप धारण किया और उनका संहार करने लगीं। उनके द्वारा उग्र स्वरूप धारण करने का प्रभाव यह हुआ कि युद्ध समाप्त होने के पश्चात भी वह अपने मूल सतोगुणी स्वरूप में वापस नहीं आ पा रही थीं और उनके तमोगुणी स्वरूप के कारण संसार का विनाश प्रत्यक्ष होने लगा। स्थिति की गम्भीरता को देखकर देवताओं ने भगवान शिव को समाधिस्थ अवस्था से बाहर लाने का प्रयास किया। जिसके परिणामस्वरूप जब भगवान शिव ने समाधिस्थ अवस्था से बाहर आकर अपनी आँख खोली तो पाया कि प्रकृति रूपी माता पार्वती अपने महाकाली के तामसिक रूप में संसार का संहार कर रही हैं तो वे माता पार्वती को उनके मूल स्वरूप में वापस लाने के लिए स्वयं माता काली के सामने लेट गये और जब माता काली जी का पैर भगवान शिव के वक्षस्थल पर पड़ा तो आत्मग्लानि स्वरूप उनकी जीह्वा बाहर निकल गयी और उन्हें अपने मूल स्वरूप का बोध होने लगा और धीरे-धीरे वापस अपनी मूल प्रकृति माता पार्वती के स्वरूप में अपने पुरुष तत्व रूपी भगवान शिव के समीप लौट पायी।

चूँकि ऊर्जा का स्वभाव परिवर्तनशील एवं गतिशील होता है। इसीलिए प्रत्येक मनुष्य जब संसार में अपनी जीवन यात्रा तय करता है तो उसकी प्रकृति रूपी ऊर्जा संसार में उसके कर्मो, खान-पान, सामाजिक/प्राकृतिक वातावरण आदि विभिन्न प्रकार के गुणों अर्थात् सत्व, रजस एवं तमस प्रधान आभामण्डल से होकर गुजरती रहती है। जिसके कारण वह ऊर्जा कभी-कभी प्रदूषित और असंतुलित होकर मनुष्य के अत्यंत दुःखों का कारण बन जाती है ऐसी अवस्था को संभालना अथवा ऐसी अवस्थाओं से अपने मूल गुणों में वापस आ पाना उसके वश के बाहर हो जाता है। इन स्थितियों में उसको संतुलित अवस्था में लाने का एक ही माध्यम है अष्टांग योग। वैदिक ज्ञान में आध्यात्मिक रूप से मन को संतुलित करने के लिए अष्टांग योग के प्रथम पाँच अंग बहिरंग रूप में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, एवं प्रत्याहार होते है तथा तीन अंतरग रूप ध्यान, धारणा एवं समाधि होते है।

बहिरंग अर्थात बाहरी आयामों का तात्पर्य शारीरिक, सामाजिक, वैयक्तिक, प्राणिक एवं इन्द्रियगत आयामों का शुद्धिकरण करना तथा बहिरंग साधना जब यर्थात रूप से अनुष्ठित हो जाती है तब साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है और मनुष्य को ध्यान, धारणा तथा समाधि के माध्यम से अंतर्मुखी होकर अपनी आंतरिक शक्ति रूपी ऊर्जाओं से परिचय होता है तथा उन स्थितियों की प्राप्ति के पश्चात मनुश्य को अपनी प्रकृति की वाह्य एवं आंतरिक ऊर्जा शक्तियों को संतुलन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। वेदों में भी इस बात का उल्लेख है कि माता पार्वती को भी अपने शिव रूपी पुरुष तत्व को पाने के लिए इसी अष्टांग योग का सहारा लेना पड़ा और तभी माता पार्वती को भी अपने अंदर व्याप्त माता आदिशक्ति की शक्तियों एवं स्वरूप का बोध हुआ।

यहाँ प्रश्न उठता है कि अपनी प्रदूषित ऊर्जाओं के शुद्धिकरण के लिए वर्ष में नवरात्रि पर्व को ही क्यों चुना गया? इसका प्रमुख कारण यह है कि वर्ष की दोनो प्रमुख नवरात्रियों का समय ऋतुओं के संधिकाल का होता है एवं संधिकाल में वातावरण में ऋतुओं की ऊर्जाएं परिवर्तित होती हैं। जिसके कारण वातावरण में शून्यता का प्रभाव अधिक होता है। इसलिए यदि इस समय साधना करके मनुष्य अपनी ऊर्जाओं में परिवर्तन कर उनको संतुलित करने का अनुष्ठान करता है तो वातावरण की ऊर्जा भी उसको भरपूर सहयोग प्रदान करती है। जिससे वह अपनी मूल प्रवृत्ति को आसानी से पा सकता है।

नवरात्रि पर्व का यह अनुष्ठान अष्टांग योग का ही स्वरूप है। जिसमें माता के नौ स्वरूपों की ऊर्जा को पहचानने का अवसर प्राप्त होता है। संसार में खान-पान, सामाजिक परिवेश एवं कर्मक्षेत्र के विभिन्न वातावरण में रहकर जब मनुष्य की ऊर्जाओं के प्रदूषित होने से उसकी प्रवृत्ति में बदलाव आ जाता है तो उसे इन नवरात्रि की समयावधि में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, एवं प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधि प्रक्रिया को अपनाकर अपनी ऊर्जाओं का शुद्धिकरण करने का अवसर प्राप्त होता है। आदिशक्ति स्वरूपा माता दुर्गा जी की इन नौ स्वरूपों की ऊर्जाएं ही मनुष्य के शरीर में सात चक्र एवं दो नाड़ियों के रूप में व्याप्त होती है, इन्हीं ऊर्जाओं के असंतुलन से मनुष्यों के अंदर उनकी प्रकृति रूपी ऊर्जा अर्थात् प्रवृत्ति में विकृति एवं नकारात्मकता का उदय होता है, जिसका संतुलन इन नवरात्रि के पर्व में चक्रों एवं नाड़ियों का शोधन करके किया जाना चाहिए।

जब कोई साधक इसी प्रक्रिया को ठीक से समझकर पूर्ण निष्ठा, धर्म एवं भाव से अष्टांग योग के नियमों का पालन कर बारम्बार नवरात्रि पर्व का अनुष्ठान पूर्ण कर धीरे-धीरे अंतर्मुखी होता जाता है तो उसे अपनी ऊर्जाओं को संतुलन करने की शक्तियाँ प्राप्त हो जाती है और वह अपने जीवन के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति कर तमाम सिद्धियाँ एवं आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त करता है।

एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’