लखनऊ। गोमती नदी का बैकुण्ड धाम स्थित तटबंद्ध। यही कोई साढे सात से आठ बजे के बीच का समय। नदी की छाती पर आधा से पौन किमी मीटर के दायरे में कतारबद्ध जलती अनगिनत इंसानी चिताएं चीन के बुहान की भयावह मंजर की यादें ताजा करा रही थी। धूं-धूं करती इंसानी चिताओ काली होली के बीच इक्का-दुक्का डरे-सहमें चेहरों की आंखे लाशों के ढेर में तब्दील हो रहे लखनऊ शहर की जमीनी हकीकत को बयां रही थी। इनकी आंखों के आंसू सूख चुके थे और चेहरों पर दहशत भरा खौफ साफ नजर आ रहा था।
गोमतीनगर के इन्द्रिरा गांधी प्रतिष्ठान के निकट स्थित रसाटिक हास से घर का खाना लेकर लौटते समय गोमती नदी का मंजर देखकर मेरे कदम थम से गये और कुछ समय के लिये मै अपनी पीडा भुलाकर सडक के एक किनारे कार खडी करके अपनी बेटी आंचल दुबे के साथ नदी में उतर पडा। दरअसल कोरोना की इस महामारी के चपेट में मेरी छोटी बेटी वंशिका दुबे और पत्नी मीना दुबे भी आयी है।
पिछले साल दिनों से दोनों घर पर आइसोलेशन में आयी और धवस्त हो चुकी सरकारी व्यवस्था के बीच मै जैसे-तैसे घरलू जिम्मेदारियां निभा रहा हूं। खाना बनाने में दिककत होने के कारण मै रसाटिक हास शाम का खाना लेने निकला था। इनके द्वारा घरेलू शुद्ध खाना कोरोना पीडित परिवारों को मुफ्त उपलब्ध कराके सेवा की जा रही है।
खैर लौटते वक्त गोमती नदी पर जलती चिताओं के मंजर ने मेरी आत्मा और 25 सालों की पत्रकारिता को हिलाकर रखा दिया। नदी के एक छोर जो कुछ दिखा वह बहुत ही दर्दभरा दिल को कंपा देने वाला नजार था। नदी के दूसरे छोर खडे होने पर चिताएं ही चिताएं नजर आ रही थी। लाशे अधिक थी और इन पर आंसू बहाने अथवा कंधा देने वाले कम। नदी की छाती पर चिताएं कुछ यूं जल रही थी कि मानों यमराज धरती पर खुद उतर आये हो।
मैने अपने दिल-दिमाग पर जोर डालते हुये दूर से चिताओ को गिनना शुरू किया और 143 की संख्या तक गिन सका लेकिन आगे और भी लम्बी चिताओ की कतारे थी जिसकी दूर से गिनती कर पाना मेरे वश की बात नही थी। मेरा अनुमान है कि एक साथ जलती चिताओ की संख्या ढाई सौ के आसपास रही होगी। दिलों की विचलित करने वाले इस नजारा लोगों को विचलित जरूर कर सकता है और इसे यूं रखने के मेरा इरादा एकदम नही था लेकिन सरकार को सच का आइना दिखाने तथा इंसानीयत का धर्म निभाने के लिये मै अपने आपको रोक न सका।
करीब आधा घंटे तक मै नदी के दूसरे छोरे घने सूनसान और खतरनाक इलाके में रहकर कोरोना के रूप में मची इस तबाही के मंजर को निहारता रहा। सच मानों तो इस दौरान पत्नी और बेटी को कोरोना पीडित होने की पीडा तथा नदी किनारे के खतरनाक इलाके के डर के मै भुलाकर इंसानी आफत का गवाह बन गया।
बेशक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी कोरोना संक्रमण से निपटने के लिये रात-दिन जुटे है और अपना कष्ट भुलाकर प्रदेश की जनता की सेवा करने की कोशिश कर रहे है लेकिन उन्हे इस संकटकाल में सच से रूबरु होने के लिये अफसरशाही के उस घेरे से निकलने की जरूरत है जो उन्हे सब-कुछ ठीक होने का सपना दिखाती आ रही है।
सरकार के दावे हकीकत से कोसों दूर है। हकीकत को रखने की सरकार के एक मंत्री ने कोशिश जरूर की लेकिन अब वह सबके निशाने पर हैं। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि निंदक नीयरे राखिये आंगन कुटी छबाया के रास्ते पर योगी जी को चलना चाहिए ताकि सरकार के जो निर्णय है वह अच्छे से जमीन पर उतर सके और लखनऊ की जनता के घावों पर मरहम लग सके।
कमल दुबे, वरिष्ठ पत्रकार