केपी दादा ने कहा कि डायलाग तो लिख दूंगा लेकिन लखनऊ से बाहर नहीं जाऊंगा

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बॉलीवुड में चमके लखनऊ के फनकार

फिल्म ‘स्वदेश” में उनका लिखा एक डायलाग है ‘अपने ही पानी में पिघल जाना बर्फ का मुकद्दर होता है।” आैर ‘जिन्दगी इतनी खूबसूरत हो कि जिस दिन मौत आये उस दिन हमारे साथ वह भी खूबसूरत हो जाए” इन दिल को छू लेने वाली जिन्दगी की फिलासफी को बयान करने वाली इन लाइनों के रचयिता महान व्यंग्यकार, उपान्यासकार व फिल्मों के सफल स्क्रिप्ट राइटर जनाब के पी सक्सेना जी 31 अक्टूबर 2013 को हम चाहने की आंखों को नम कर हमेशा हमेशा के लिए इस फानी दुनिया को अलविदा कह गये।

आज हम फिल्म संवादों और स्क्रीन लेखक के बारे में बात करेंगे, प्रसिद्ध व्यंग्यकार, पद्मश्री ने केपी सक्सेना को सम्मानित किया, जिनके लेखन संवादों ने फिल्मों को सुपर हिट बना दिया। कालिका प्रसाद सक्सेना यानी अपने केपी दादा का जन्म 13 अप्रैल 1932 को बरेली में हुआ था। उनके पिताजी मुजफ्फर अली के पिता राजा सैयद साजिद हुसैन अली के दीवान थे। एक बार घोड़े से गिरकर उनकी मौत हो गयी थी। उनका निधन तब हो गया था जब केपी दादा  मात्र 10 वर्ष थे। वे अपने मामा के साथ रहने आ गए। उनकी आरम्भिक शिक्षा बरेली में हुई व हाई स्कूल व इंटरमीडिएट उन्होंने गोरखपुर से किया। उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ आये आैर विश्वविद्यालय से बटनी में एमएससी की डिग्री प्राप्त की।

काफी समय वो वजीरगंज थाने के पीछे रहते रहे। फिर पाटा नाला के पास आ गये। उन्होंने क्रिश्चियन कलेज में प्रोफेसर बन, तीन वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। उन्होंने बाटनी पर 14 पाठ्य पुस्तकें भी लिखीं। फिर उन्हें रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर नौकरी मिल गई। उनकी पहली पोस्टिंग भी लखनऊ शहर में ही हुई थी। केपी दादा को बचपन से ही लिखने के शौक था उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू किया।

सुप्रसिद्ध लेखक अमृत लाल नागर जी ने उनसे हिंदी लिखने के लिए कहा। हिंदी के समाचार पत्रों की साप्ताहिक पत्रिकाओं और राष्ट्रीय पत्रिकाओं के लिए भी व्यंग्य लिखना शुरू किया। जो लोगों की पहली पसंद बन गये। बाद में उन्होंने आकाशवाणी और दूरदर्शन और धारावाहिकों के लिए कई नाटक लिखे और लेखन की एक नयी शैली आैर भाषा का आविष्कार किया जिसमें स्थानीय बोली के देशज शब्द लोगों के दिलों में उतरने लगे। हिंदी, अवधी और उर्दू के समिश्रण से तैयार भाषा उनकी पहचान बन गयी।

1981 में जब उन्होंने लखनऊ  दूरदर्शन के लिए धारावाहिक ‘बीबी नातियों वाली” लिखा, जिसे सुशील कुमार सिंह ने निर्देशित किया था, इस धारावाहिक को दर्शकों ने बेहद पसंद किया। बाद में लोगों की पसंद को देखते हुए इसे राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित किया गया, जिसने उन्हें एक अलग पहचान दिलाई। बाद में जापान में भी इसे डब करके दिखाया गया।

बॉलीवुड के सुपर स्टार व निर्माता आमिर खान अवध की पृष्ठिभूमि पर आशुतोष गवारिकर के निर्देशन में फिल्म ‘लगान” की तैयारी कर रहे थे। केपी दादा के धारावाहिक ‘बीबी नातियों वाली” की ख्याति से मुतासिर होकर उन्होंने दादा को फोन किया आैर कहा कि मैं आमिर खान बोल रहा हंू आप मेरी फिल्म लगान के डायलाग लिखेंगे? उन्हें लगा कि सुबह सुबह कोई प्रैंक कर रहा है। उन्होंने फोन काट दिया। फिर फोन आया। तब उन्हें विश्वास हुआ कि सच में आमिर खान ही हैं।

उन्होंने हां तो कर दी पर एक शर्त भी रख दी कि वे लखनऊ में रहकर ही पटकथा व संवाद लिखेंगे। फिल्म सुपर डुपर हिट रही। अब तो आशुतोष गवारिकर के दादा पहली पसंद बन गये। जब उन्हें ‘जोधा अकबर” फिल्म के डायलॉग लिखने के लिए आशुतोष ने कहा तो यह उनके उर्दू, अरबी, फारसी, संस्कृत व राजस्थानी भाषा के ज्ञान का इम्तेहान था। उन्होंने एक महीने का समय मांगा। उनका काफी समय रिसर्च में बीता। आशुतोष को जब डायलाग मिले तो उन्होंने कहा कि वंडरफुल। बाद में दादा के न रहने पर उनका संदेश आया,’ केपी सर स्क्रिप्ट को खत्म करने के लिए एक महीने तक दिन में 12 से 14 घंटे तक लिखते थे। ‘जोधा अकबर” के डायलाग उन्होंने मुझे पढ़कर सुनाए ताकि मैं डायलाग डिलीवरी आैर उच्चारण को समझ सकंू । वे शूटिंग के समय भी रहे ताकि वो देख सकें कि आम आदमी को डायलाग समझ में आ सकेंगे कि नहीं। मैं समझता हूं कि ‘मुगले आजम” के बाद यह एक मुश्किल काम था जिसे केपी सर के अलावा आैर कोई नहीं कर सकता था।

“निर्देशक प्रियदर्शन की फिल्म ‘हलचल” (अक्षय खन्ना, करीना कपूर 2004), फिर आशुतोष गवारिकर के निर्देशन में ‘स्वदेश” (शाहरुख खान, गायत्री जोशी -2004), ‘जोधा अकबर” (रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय- 2008) की फिल्मों के संवाद लेखन के बाद वे एक हारर फिल्म की कहानी पटकथा व संवाद लिखने की इच्छा रखते थे। लेकिन वक्त ने मौका नहीं दिया।

उन्होंने व्यंग्य कालम, नाटक, व्यंग्य रचनाओं का संकलन व फिल्मों में संवाद लेखन के अलावा रेडियो आैर दूरदर्शन के लिए कई नाटक न सिर्फ लिखे बल्कि काम भी किया। वो फिल्मी मैगजीन मायापुरी में साप्ताहिक व्यंग्य पीस लिखते थे लेकिन उन्हें फिल्में देखने का शौक नहीं था। ये उनके लिए वेस्टेज आफ टाइम था।

1971 में पाकिस्तान से युद्ध के बाद उन्होंने देश के लिए धन एकत्र करने के लिए नुक्कड़ नाटक लिखा जिसका निर्देशन आकाशवाणी के जयदेव शर्मा कमल ने किया था। यही नहीं शरद जोशी के बाद उनकी चुटीली व्यंग्य रचनाओं को लोग इतना पसंद करने लगे कि उनके व्यंग्य (गद्य) लेखक होने के बावजूद उन्हें कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया जाने लगा। 1995 में उन्होंने मंच से नाता तोड़ लिया। वो कहते थे कि रास्ते तो कभी खत्म नहीं होते हमें अपनी सुविधा के अनुसार मोड़ आते ही उसे ले लेना चाहिए। हो सकता है कि वो मोड़ आपकी मंजिल तक जाता हो। उन्होंने अपनी नौकरी से वालेंटरी रिटायरमेंट ले लिया। गद्य लेखक होने के बावजूद काव्य मंच पर बहुत समर्थ कवियों से कहीं ज्यादा तालियां बटोरते थे। उनका मंच पर व्यंग्य प्रस्तुतिकरण अंदाज लाजवाब था। उन्होंने 1800 के आसपास व्यंग्य रचनाएं लिखीं। वह कहते थे कि एक पलड़े पर एक पहलवान को खड़ा कर दो आैर दूसरे पर मेरी रचनाएं रख दो, मजाल है जो पलड़ा एक इंच भी उठ जाए। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में वर्ष 2000 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया।

# प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव