सुख-दुःख और परम् आनन्द

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मनुष्य की जीवन यात्रा में सुख और दुःख साथ-साथ चलते हैं। मनुष्य को इस सत्य का ज्ञान होते हुए भी कि उसके जीवन सहित संसार की सभी जीवनोपयोगी वस्तुएं नश्वर हैं, फिर भी वह सुख प्रदान करने वाली वस्तुओं की प्राप्ति को ही सुख की परिभाषा मानता है और जब उसे इन भौतिक सुख प्रदान करने वाली वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है तब उसे उन वस्तुओं के खोने अथवा नष्ट हो जाने का भय सताने लगता है और यही उसके दुःख का कारण होता है।

सुख की उत्पत्ति ‘अनासक्ति’ तथा दुःख की उत्पत्ति ‘आसक्ति’ से होती है अर्थात् दुःख एवं सुख का मूल कारण व्यक्ति की आसक्ति एवं अनासक्ति होती है। व्यवहारिक रूप से तन, मन, धन, बुद्धि तथा अध्यात्म, ये पाँच प्रकार के सुख हैं और ये ही पाँच प्रकार के दुःख भी हैं। बुद्धि के बल पर धन अर्जित किया तो बुद्धि का सुख मिला, अर्जित धन से चाकलेट खरीदी तो धन का सुख मिला, फिर उसे खाया गया तो तन का सुख मिला और यदि उसको बच्चों में बाँट दिया तो मन को सुख मिला और यदि अपने जीवन के उद्देश्यों को जान लिया तो अध्यात्म का सुख प्राप्त हुआ। वहीं दूसरी ओर यदि तन व्याधिग्रस्त हो गया तो तन का दुःख, परिवार के किसी सदस्य के साथ दुर्घटना घटी तो मन का दुःख, कमाया हुआ धन चोरी चला गया तो धन का दुःख, तन्मयता से किये गये किसी कार्य की असफलता से बुद्धि का दुःख होता है और इन सब भौतिक सुखों के फेर में अपने जीवन यात्रा के उद्देश्य व लक्ष्य को न समझ पाना अध्यात्म का दुःख होता है जो अन्य सभी दुखों से बड़ा होता है।

सुख और दुःख मन से उत्पन्न विचारों का खेल है, यद्यपि इस भौतिक युग में इन विचारों से पूर्णतया परे रहना तो संभव नहीं है परन्तु इन विचारों की उत्पत्ति के कारणों को समझ लेने से आसक्ति से अनासक्ति की ओर यात्रा करके सुख-दुःख की अनुभूति में कमी अवश्य लायी जा सकती है। मन में सुख-दुःख सम्बन्धी विचारों की उत्पत्ति के कारणों को समझने का माध्यम है ‘‘अध्यात्म’’। चूँकि भौतिक सुखों के आवरण में उलझे होने के कारण अध्यात्म की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होना अंसभव सा होता है। जब भी मनुष्य के जीवन में कोई अप्रिय व दुःखद घटना घटित होती है तो वह स्वयं के कर्मों का विश्लेषण करता है और इसके कारण एवं समाधान की खोज में उसका रूझान अध्यात्म की ओर होने लगता है। जिसके लिये वह मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारा तथा संत-महात्मा की शरण में जाता है और धार्मिक/अध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करने का प्रयास करता है।

इस बीच यदि उसे कोई उचित मार्गदर्शक मिल गया तो उसे अपने जीवन के उद्देश्यों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है परन्तु यदि कोई कर्म-काण्ड वाला मार्गदर्शक मिल गया तो वह उसे पूजा-व्रत एवं तंत्र-मंत्र जैसे कई उपाय सुझाता है। ताकि मन की शान्ति के लिये भटक रहा वह व्यक्ति उस कर्म-काण्ड वाले व्यक्ति के शरण में रहकर हर छोटी-बड़ी समस्या के समाधान के लिए जीवन भर उससे सम्पर्क करता रहे।

यद्यपि ‘‘अध्यात्म’’ सुख एवं दुःख को समाप्त करने का यंत्र नहीं है। अपितु यह सुख एवं दुःख को सहजता से आत्मसात करने का ज्ञान प्रदान करता है। अध्यात्म से मनुष्य एवं प्राकृतिक वस्तुओं के सृजन, संचालन, सन्तुलन एवं विनाश से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त होती है। जिससे जीवन न केवल सुख-दुख से निष्प्रभावी हो जाता है बल्कि उसे ‘‘जीवन में आनंद’’ की अनुभूति होने लगती है।

अध्यात्म का प्रथम चरण है ‘‘ध्यान’’। इस क्रिया से मनुष्य शरीर में परम्पिता परमेश्वर एवं माँ आदिशक्ति के उपस्थित ऊर्जा अंश अर्थात् ध्यान मुद्रा में बैठकर अपने मन को शरीर के आन्तरिक ऊर्जा केन्द्रों पर केन्द्रित करना। इस क्रिया से धीरे-धीरे आन्तरिक ऊर्जा शक्ति जागृत होती है। मनुष्य 24 घण्टे में अपने नाश्ते एवं खाने के लिये लगभग 2 से 3 घण्टे, उसको तैयार करने तथा जीविका चलाने हेतु लगभग 10 से 12 घण्टे, मनोरंजन हेतु लगभग 2 से 3 घण्टे तथा शयन में लगभग 8 से 10 घण्टे का समय व्यतीत करता है।

यह सब वह इच्छानुरूप खाना खाने के सुख, पहनने एवं रहने के सुख, पारिवारिक दायित्वों के सुख, शुभचिन्तकों एवं जीवन में सहयोग करने वाले के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने एवं ठीक से निद्रा का सुख पाने के लिये ही करता है तो इन सबसे ऊपर उठकर परमानन्द की प्राप्ति के लिये उसे उपरोक्त समस्त क्रियाओं हेतु आपको प्रदत्त शरीर एवं शरीर के संचालन करने वाली दिव्य शक्तियों की ऊर्जा को नमन करने के लिए अपनी दिनचर्या में से कुछ समय प्राथमिकता के आधार नियत करना चाहिए क्योंकि इस सत्य का ज्ञान हर मनुष्य को है कि बिना ईश्वरीय ऊर्जा के उक्त क्रियाओं हेतु शरीर की समर्थता क्षण मात्र के लिए भी नहीं हो सकती। इसीलिये जन्म के उद्देश्यों के अन्तर्गत परमपिता परमेश्वर के निकट जाने और कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु प्रथम चरण की यात्रा ‘‘ध्यान’’ से प्रारम्भ करें।

ध्यान का निरन्तर प्रयास करने से कुछ ही दिनों में आप पायेगें कि आपके अन्दर धैर्य, सहनशीलता, विनम्रता और सकारात्मकता का स्तर बढ़ जायेगा, जो सुख एवं परम आनन्द का माध्यम होता है। इसके अतिरिक्त पूर्ण संभव है कि यदि आप में से किसी को भी मानसिक तनाव, माइग्रेन, हड्डी एवं हृदय जैसे कई रोगों में से कोई रोग है तो उसमें भी आप आश्चर्यजनक कमी, यहाँ तक कि आप रोग की समाप्ति का अनुभव करेंगे। इस चरण में जब मन केन्द्रित होने लगे तब यदि आध्यात्मिक ज्ञान की जानकारी करने की इच्छा हो तो उचित गुरू के सम्पर्क में जायें।

एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’