कहीं भाजपा कांग्रेस का अनौपचारिक समझौता तो नहीं कि रायबरेली तेरी अमेठी मेरी

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रायबरेली-अमेठी में दोनों गठबंधनों के प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद अब परिणाम भी लगभग साफ होने लगा है। अमेठी में जहां स्मृति ईरानी के जीत जाने की संभावनाएं बढ़ गई हैं वहीं भाजपा के दिनेश प्रताप सिंह को रायबरेली में जीतने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।

पहले बात रायबरेली सीट की। रायबरेली कांग्रेस का अजेय किला रही है। यहां फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी ने गांधी परिवार की नुमाइंदगी की है। यहां बस एक बार इंदिरा गांधी को समाजवादी नेता स्वर्गीय राज नारायण ने इमरजेंसी के ठीक बाद हराया था। अन्यथा लगभग हमेशा ही कांग्रेस जीतती रही है। उसे दौर में भी जब मोदी की आंधी में पूरे प्रदेश से कांग्रेस का सुपड़ा साफ हो गया। तब रायबरेली में कांग्रेस और सोनिया गांधी की इज्जत बचाई थी। यह अलग बात है कि उनकी जीत का अंतर 2014 और 2019 में क्रमशः घटता गया।

पर सोनिया गांधी की बात अलग थी। अब कांग्रेस का घटना प्रभाव, सिमटता वोट बैंक और राहुल की छवि इस जीत में आड़े आ सकती है। राहुल का अस्थिर राजनीतिक मिजाज भी इस गीत में दिक्कत पैदा कर सकता है। हालांकि राहुल गांधी के लिए पूरे देश में रायबरेली से सुरक्षित सीट कोई दूसरी हो ही नहीं सकती अगर रायबरेली की जनता उनसे बेवफ़ाई ना करे तो।

अगर यहां से भी राहुल गांधी, भगवान न करें हार जाते हैं तो यह कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार के लिए बहुत बड़ा सेट बैक होगा। राहुल गांधी के पास यहां प्रचार करने के नाम पर गांधी खानदान की विरासत की दुहाई देने के अलावा काम के नाम पर कुछ है भी नहीं। क्योंकि पिछले 2014 से केन्द्र में भाजपा की सरकार है। और चाहकर भी सोनिया गांधी कोई काम नहीं करा पाईं। अगर कोई काम हुआ भी है तो उसका श्रेय भाजपा ले जाएगी। अब देखना यह है कि गठबंधन की उसकी सहयोगी समाजवादी पार्टी कांग्रेस के लिए कितनी संकटमोचन बनती है क्योंकि रायबरेली जिले में उसकी पार्टी में भी फूट पड़ गई है। उसके चार में से एक विधायक बिना पार्टी छोड़ें भाजपा के खेमे में चला गया है। खबर है कि भाजपा ने ऊंचाहार के उस विधायक मनोज पांडे को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाने का सोच लिया है। ऐसे में वह भी की जान से दिनेश प्रताप सिंह को जिताने में लग गए हैं।

आंकड़ों की बात करें तो रायबरेली लोकसभा क्षेत्र में पांच विधानसभाएं में जिनमें से एक पर भाजपा और बाकी चार पर समाजवादी पार्टी का कब्जा है। सपा के कोटे से ऊंचाहार के विधायक और पूर्व मंत्री मनोज पांडे ने राज्यसभा चुनाव के समय से ही अपनी पार्टी से किनारा कर लिया है। इस प्रकार पांच में से दो विधायक इंडी गठबंधन के साथ नहीं है। इसके अलावा लोकसभा के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर नहीं राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं। जनता भी यह जान रही है कि केंद्र में भाजपा की सरकार आने वाली है। ऐसे में विकास के लिए वह हो सकता है भाजपा के साथ चले। सोनिया गांधी के साथ एक स्वाभाविक अटैचमेंट जनता का था। किंतु राहुल गांधी के साथ ऐसा नहीं है। वे जब तक अमेठी से जीतते रहे तब तक अमेठी उनका परिवार होता है और हार जाते हैं तो वायनाड उनका परिवार हो जाता है। वैसे भी उन्होंने अमेठी से चुनाव न लड़कर अमेठी के समर्थकों के साथ बेवफाई की है, ऐसा अमेठी के लोगों का मानना है। और कहीं गलती से रायबरेली के लोगों में कांग्रेस और राहुल गांधी से बेवफाई कर दी तो परिणाम चौंकाने वाले भी हो सकते हैं।

रायबरेली से एनडीए के उम्मीदवार दिनेश प्रताप सिंह क्षेत्र में लगातार मेहनत करते रहे हैं सोनिया गांधी से चुनाव हार जाने के बावजूद उनके क्षेत्र की जनता से जुड़ाव लगातार बना हुआ है। वह जमीन से जुड़े नेता है, प्रदेश सरकार में मंत्री हैं। हो सकता है कि राहुल गांधी को कड़ी टक्कर देने के बाद उन्हें कोई बड़ा इनाम भी मिल जाए। ऐसे में जनता उस प्रत्याशी को ही चुनेगी जो उनके लिए कुछ कर सके। राहुल अगर जीत भी गए तो भी रायबरेली के लिए कुछ कर नहीं पाएंगे। और दिनेश प्रताप सिंह हार भी गए तो भी जनता के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। क्योंकि वे उसे पार्टी का हिस्सा हैं जो देश और प्रदेश दोनों में सत्तासीन है। राहुल एक राष्ट्रीय पार्टी का बड़ा नेता होने का लाभ उठा सकते हैं परंतु जनता उनके बड़े होने का कितना मान रखती है ये तो 4 जून को ही पता चलेगा। पर यदि दिनेश प्रताप सिंह थोड़ी ठीक-ठाक मेहनत करते हैं तो परिणाम चौंकाने वाले भी हो सकते हैं।

अब बात अमेठी की। अमेठी में हार जाने के बाद राहुल में अमेठी की जनता का जितना तिरस्कार किया उतना ही स्मृति ईरानी ने स्वीकार किया। उन्होंने यहां पर अपना आवास बनाया और लगातार जनता के बीच बनी रहीं। उन्होंने अपने प्रयास से अमेठी जिले को कई प्रोजेक्ट भी दिलवाए। उनके मुकाबले कांग्रेस ने किशोरी लाल शर्मा को चुनाव मैदान में उतारा है। वे न तो गांधी परिवार से हैं और न ही उन्हें कभी खुद चुनाव लड़ने का अनुभव है। हां ये सच है कि वे गांधी परिवार के चुनावी मैनेजमेंट का काम पिछले कई सालों से देख रहे हैं। पर चुनाव लड़ना और चुनाव मैनेजमेंट करना दोनों में बहुत अंतर। वैसे भी वे राहुल गांधी के कद के नेता नहीं है। इसलिए उनका पलड़ा स्मृति ईरानी के मुकाबले हल्का है। अमेठी की परिस्थितियां फिलहाल स्मृति ईरानी के अनुकूल हैं और अभी उन्हें कोई खतरा नहीं दिखता। पर यह जनता है, कब किससे बेवफाई कर जाए कोई नहीं जानता।

वैसे दोनों ही लोकसभा क्षेत्र में प्रत्याशियों का चयन भी लोगों के गले नहीं उतर रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे दोनों बड़ी पार्टियों ने आपस में कोई अनौपचारिक समझौता कर रखा हो कि रायबरेली तेरी अमेठी मेरी।

अभयानंद शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ