क्या आगे हिम युग आने वाला है……

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# शिवचरण चौहान

क्या आगे हिम युग आने वाला है…… माघ पूस का जाड़ा और आम आदमी…. इस साल पूस ( जनवरी) इतना भयंकर जाडा पड़ रहा है कि लोग बर्फ की तरह जमे जा रहे हैं। पहाड़ों से लेकर मैदानों तक धूप बेअसर है। लगता है हिम युग आने वाला है।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने कभी लिखा था
शिशिर की शर्वरी
हिंस पशुओं से भरी।
ऐसी दशा विश्व की
विमल लोचनों ने देखी
जगा त्रास।
हृदय संकोचनों की नाची
दिगंबरी प्रात। किरन हाथ प्रातः बढ़ाया कि भय के हृदय से पकड़कर छुड़ाया।
चपलता पर मिली अपलप थल की तरी।।
शिशिर की रात का निराला ने बखूबी वर्णन किया है।
भारतीय जनमानस को छह ऋतुएं हमेशा प्रभावित करती रही हैं।

बरसात के बाद शरद ऋतु आती है। शरद ऋतु में मौसम सुहाना होता है। हल्की गुलाबी ठंड अच्छी लगती है। शरीर को सूर्य की किरणें शहद सी मीठी लगती हैं। पर हेमंत और शिशिर तो पूरी प्रकृति को ही थरथरा जाते हैं। हेमंत ऋतु धनु के 15 दिन पड़ते हैं। मकर संक्रांति के बाद सूरत उत्तरण में आ जाता है पर शिशिर ऋतु के कारण शीत का जोर बहुत बढ़ जाता है। सितंबर अक्टूबर यानी क्वार, कार्तिक महीनों के समाप्त होते ही अगहन और पूस यानी 15 दिसंबर और जनवरी से 15 फरवरी तक कड़ाके की ठंड सर्दी पाला और पहाड़ों पर बर्फ पड़ती है। पेड़ों की पत्तियां पीली होकर झड़ जाती हैं। फूल मुरझाने लगते हैं। तितलियां पंख नहीं फड़फड़ा बातें। पंछियों चिड़ियों की कतारें पेड़ों की फुंगियों और बिजली के तारों मोबाइल के टावर पर बैठकर दोपहर में धूप सेंकती हैं। गिलहरी शिशिर की वजह से पेड़ की आखिरी डाली पर बैठ कर टिलटिलाटी है। लोग हीटर, अंगीठी, अलाव, तपता तापते हैं। पुआल, कंडा, लकड़ी जलाकर शिशिर से अपनी जान बचाते हैं। जिनके घर में एसी लगे हैं वे वातानुकूलित माहौल में रहकर सर्दियां बचाते हैं। रजाई कंबल, शाल दोशाला, कंटोप, मोजे दस्ताने, मफलर सब के कानों पर शरीर पर लिपट जाते हैं।

कहावत है गर्मियां गरीबों की और सर्दियां अमीरों की। सर्दियों में अमीर तो आराम से अच्छा-अच्छा खा पीकर स्वस्थ रहते हैं पर गरीब की जान पर बन आती है। भारत में कितनी मौतें हैं सर्दी लगने से होती हैं उतनी शायद किसी अन्य वजह से नहीं होती। इसीलिए निराला ने लिखा है की शिशिर की रात खतरनाक जंगली जानवरों से भरी है। शिशिर के खतरनाक जंगली जानवर किस मनुष्य को अपना शिकार बना लें कहा नहीं जा सकता।

शिशिर गरीबों के लिए काल बनकर आती है। कहने को तो सरकारें कहती हैं कि उसने अलाव जलवाए कंबल बटवाए, चाय और बिस्कुट वितरित करवाए पर यह सब बातें नाकाफी साबित होती हैं। न जाने कब से लोक ग्राही सरकारें गरीबों के हित की बातें करती हैं और आज तक गरीबी भारत से गई ही नहीं। गरीबों को सड़क किनारे बस अड्डा रेलवे स्टेशनों या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ठिठुरते हुए देखा जा सकता है।
कहावत है
आया अगहन
चूल्हे में अदहन।।
अगहन में दिन इतना छोटा होता है कि चूल्हे में रोटियां बनाते ही दिन बीत जाता है।
आया पूस।
रजाई में घूस।।
पूस यानी जनवरी में रजाई में छिपे ही दिन बीत जाता है। रजाई से निकलने का मन ही नहीं करता। कुछ लोग पकौड़ी या अन्य गर्म चीजें खाकर सर्दियों का लुफ्त उठाते हैं। पर शिशिर गरीबों पर कहर बनकर टूटती है। लोक कवि घाघ ने कहा है
बच्चों से हम बोलत नाही
जवान लगे सग भाई
बूढ़ों को हम छोड़त नाही
चाहे ओढ़े फिरे रजाई।।
सच में शिशिर वृद्ध लोगों के लिए काल बनकर आती है। थोड़ा सा चूके नहीं की यमराज का बुलावा आ जाता है।
धनु के पंद्रह, मकर पचीस।
चिल्ला जाड़ा दिन चालीस।।
धनु राशि के पंद्रह दिन और मकर के 25 दिन सूर्य धरती से दूर रहता है और कड़ाके की ठंड होती है इसे ही चिल्ला जाड़ा कहते हैं। चिल्ला जाड़ा इसी ऋतु में ही पड़ता है। शीत के 40 दिन गरीबों के लिए आफत बनकर आते हैं। ना रहने का ठिकाना ना खाने का ठिकाना। किसी शायर ने लिखा है
आशियाना न आबदाना है।
हम गरीबों का क्या ठिकाना है।।

सर्दी गरीबों पर कहर बनकर टूटती है। मौत का संदेश लेकर आती है। समाज सेवा में लगे तमाम तमाम समाज सेवक समाजसेवी संस्थाएं गरीबों को चाय गरीबों को कंबल रजाई बांटने की फोटो खींचा कर सोशल मीडिया में शेयर कर दो दानवीर कर्ण बन जाते हैं। असल में गरीब की कोई सुनने वाला नहीं है गरीब के लिए सर्दियां जानलेवा होती हैं। माघ मास की पंचमी को बसंत पंचमी मनाई जाती है और तभी से शीत का प्रकोप, शिशिर का गुस्सा कम होने लगता है।
आई माघ की पाचे।
बूढ़ी, डुकरिया नाचें।।
माघ महीने में बसंत पंचमी के आते ही बूढ़े और बुढ़िया यानी कि वृद्ध मनुष्य अपने को सुरक्षित महसूस करने लगते हैं। सूर्य धरती के करीब आने लगता है और ताप बढ़ने लगता है। जब जाडा कम हो जाता है सूरज थोड़ा गरमाता है।
भारत भूमि रम्य तो है पर छह ऋतुओं की अति जड़ चेतन पशु पक्षी और मनुष्य को बहुत विचलित करती है। बरसात में जब बहुत ज्यादा पानी बरसता है तो घर झोपड़ी खेत की फसलें पशु पानी के तेज बहाव में बह जाते हैं बिजली गिरने से काल कवलित हो जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में फागुन और चैत के बाद जब होली बीत जाती है नवरात्र समाप्त हो जाते हैं तो तेज धूप पड़ने लगती है सूरज भूमध्य रेखा और विश्वत रेखा पर तेज चमकने लगता है। आकाश से सूर्य आग बरसाने लगता है। तालाबों नदियों का पानी सूख जाता है कुए रीते हो जाते हैं और जनजीवन बेहाल हो जाता है। सतयुग द्वापर त्रेता और कलयुग सभी युगों में ऋतु यें अति करती हैं और जनजीवन को बेहाल कर जाती हैं।

जैसी पड़े सो सहि रहे कह रहीम यह देह।
धरती पर ही परत हैं शीत, घाम अरू मेह।।
अब्दुल रहीम खानखाना का यह दोहा बताता है कि मनुष्य को सभी ऋतु ओं की अति सहनी पडती है।
कहलाने एकत बसत अहि केहर वन बाघ।
जगत तपोवन सो कियी दीरघ दाघ निदाघ।।
सदियों से ऋतु यें इंसानों का इम्तिहान लेती रही हैं।
ऐसे में भारत में जब भयंकर गरीबी हो तो सरकारों का यह फर्ज बन जाता है कि गरीबों के हितार्थ योजनाएं बनाए और चलाए।

ना जाने कितनी सरकारें आई और गई गरीबी मिटाने के लिए अनेक योजनाएं चलाई गईं। गरीबों के लिए आवास, गरीबों के लिए राशन, गरीबों के लिए स्कूल, गरीबों के लिए पेंशन, गरीबों के लिए रसोई गैस सिलेंडर आदि ना जाने कितने कार्यक्रम चलाए गए पर अधिकांश नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। गरीब और गरीब होता गया और अमीर और अमीर। भ्रष्टाचार का कैंसर लाइलाज होता गया। भारत का सबसे बड़ा प्रदूषण तो भ्रष्टाचार ही है। शरद में शहद जैसी मिठास है तो हेमंत और शिशिर में कड़वाहट और कसैला पन भरा पड़ा है। बसंत पंचमी वसंत ऋतु से एक माह पहले मनाई जाती है। कहावत है
एक माह रितु अग्रिम धावा

भारत की छह ऋतु यें एक माह पहले से आ सकती हैं या एक माह बाद से शुरू हो सकती हैं। अब तो भयंकर प्रदूषण के चलते ऋतु चक्र में भयंकर परिवर्तन हो रहे हैं। गर्मी में सर्दी और सर्दी में गर्मी हो सकती है। कभी गर्मी में अति गर्मी, वर्षा में अतिवृष्टि और सर्दी में हिमयुग आ सकता है। विश्व भर में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन करके दुनिया की बिगड़ती जलवायु खराब होते पर्यावरण पर वैज्ञानिक चिंता जता रहे हैं। विकासवाद के चलते ही दुनिया का पर्यावरण बहुत बिगड़ गया है। आए दिन भयंकर तूफान भूकंप अतिवृष्टि भयंकर गर्मी और हिमयुग जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। इनसे निपटने के लिए अभी से प्रयास नहीं किए गए तो शायद पृथ्वी को ना बचाया जा सके।