अंतर्राष्ट्रीय बाल पुस्तक दिवस और बच्चों का भविष्य

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यह भी एक आश्चर्यजनक स्थिति से लग सकती है कि 1 अप्रैल को विश्व में ज्यादातर लोग मूर्खता दिवस के रूप में मनाते हैं लेकिन ठीक उसके दूसरे दिन वह मानव के सबसे महत्वपूर्ण कड़ी बच्चे के जीवन के लिए इतने गंभीर हो जाते हैं। वैसे तो कहने को यूरोपीय संस्कृति में चाइल्ड इस द फादर ऑफ मैन जैसे मुहावरे काफी लोकप्रिय और स्थापित हैं।

ऐसा माना भी जाता है कि एक बच्चा पोर्न आदमी से जल्दी किसी बात को समझ लेता है लेकिन भारतीय संस्कृति में बच्चे को भगवान की मूरत के समकक्ष रखा गया है। दोनों ही स्थितियों में बच्चे के भीतर भविष्य की संभावना पर कोई प्रश्न चिन्ह पूरी विश्व की संस्कृति में कभी नहीं दर्शाया गया लेकिन इसी के साथ-साथ यह सच भी अध्ययनों से स्थापित हो चुका है। जिसे पियाजे ने स्थापित किया था कि बच्चा 5 साल की उम्र तक जो देख लेता है.. सुन लेता है.. सीख लेता है..। वही उसके अंतः करण में स्थायित्व का रूप ले लेता है।

ऐसे में जब बच्चा वर्तमान में डिजिटल वर्ल्ड के साथ साथ जीने की आदत डाल रहा है तो वह उसी के समानांतर किताब से दूर होता जा रहा है। उसे टीवी के अंदर चलने वाले कार्टून अच्छे लगते हैं लेकिन किताबों की बातें अब उसे अच्छी नहीं लगती। इस तथ्य ने सबसे बड़ी समस्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के अंतर्गत यह पैदा कर दी है कि जिस बच्चे को अपने दिमाग का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करके उसे ऊर्जावान बनाना चाहिए था। वह बच्चा अब हर बात का उत्तर मोबाइल लैपटॉप की कीबोर्ड पर ढूंढने के लिए बढ़ जाता है।

इसलिए दिमाग कुछ सोचने की प्रक्रिया से दूर जा रहा है। जब की किताबें यह सोचने की प्रक्रिया को बढ़ाती थी। यह भी एक बहुत ही गंभीर विचार का विषय है कि जब भी कोई किताब पढ़ी जाती है तो वास्तव में हम उस किताब के लिखे जाने के समय के दिमाग को पढ़ते हैं जो उस समय की संरचना के बारे में हमें बताता है। वर्तमान की संरचना के साथ जब पढ़ते समय एक संक्रमण की स्थिति पैदा होती है तो वर्तमान का दिमाग एक प्रतिवाद उत्पन्न करके नई संरचना की बात कहता है.. सोचता है.. और समाज को कुछ नए तथ्य जानने को मिलते हैं।

इसी अर्थ में किताब बहुत जरूरी प्रक्रिया है लेकिन वर्तमान में मानव संसाधनों की कमी बढ़ती जनसंख्या घर के सभी लोगों के द्वारा नौकरी किए जाने की व्यवस्था में बच्चे के अकेलेपन को दूर करने के लिए जिस तरह से डिजिटल माध्यम का उपयोग किया जा रहा है। उससे बच्चा कृत्रिम मानव बन रहा है और यह एक भयावह स्थिति है। उसमें संवेदनाएं.. भावना खत्म हो रही है। संबंधों का मतलब वह नहीं समझ पा रहा है।

इन सब को वह सिर्फ यदि पुस्तकों के माध्यम से अपने दिमाग का उपयोग करते हुए समझने का प्रयास करें तो संवेदनशीलता बढ़ाई जा सकती है। बच्चे की तार्किक शक्ति बढ़ सकती है। इसीलिए 2 अप्रैल को विश्व ऑटिज्म दिवस के दिन ज्यादा समझने की आवश्यकता है क्योंकि एक तरफ अनुवांशिक आधार पर जैविक आधार पर बच्चों में यह समस्या पैदा हो रही है। जिसको तारे जमीन पर जैसी पिक्चर में भी दर्शाया गया था। वहीं दूसरी तरफ ऐसे बच्चे जिस उम्र में जिन बातों को सीखना चाहिए.. जिसके प्रति उन्हें प्रतिक्रिया देनी चाहिए.. वह उस उम्र में ऐसा नहीं कर पाते हैं।

इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को ऑटिज्म की समस्या को समझने के लिए अपने बच्चे पर ध्यान देना चाहिए कि वह वास्तव में प्रतिक्रिया दे रहा है या नहीं लेकिन जिस तरह से डिजिटल माध्यम का उपयोग बढ़ रहा है। उससे सामाजिक ऑटिज्म की भी समस्या बढ़ रही है और इस सामाजिक सांस्कृतिक ऑटिज्म के कारण भी बच्चा प्रतिक्रिया शून्य हो रहा है। उसका दिमाग एक मशीन की तरह सिर्फ व्यक्तिगत सोच की तरफ ही केंद्रित हुआ जा रहा है। जिसमें सामूहिकता का भाव है.. संबंधों की शून्यता है.. और समाज और संस्कृति जैसे शब्दों का विलोपन है।

इसीलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी लोग साहित्य समाज का दर्पण होता है। उस दर्पण के प्रतिबिंब में बच्चों को स्थापित करें और इसके लिए उन्हें समय देते हुए पुस्तकों की दुनिया की ओर ले जाएं। जिससे दिमाग पुस्तकों के तथ्यों से जोड़ते हुए बच्चे के जीवन में नैतिकता बोध को पैदा करें क्योंकि बच्चे किसी भी देश के लिए भविष्य होते हैं। बच्चों के माध्यम से ही ज्यादा बेहतर समाज की कल्पना की जाती है लेकिन जिस तरह से बच्चे पुस्तक और साहित्य से दूर हो रहे हैं। उसमें उनकी स्थिति उस अफीम खाए हुए व्यक्ति की तरह है जो दिमाग के उस भाव और तर्क को सामने नहीं रख पाता है। जिसकी उससे आशा की जाती है।

इसीलिए विश्व बाल पुस्तक दिवस पर इससे सामाजिक सांस्कृतिक ऑटिज्म की समस्या मानते हुए विश्व ऑटिज्म दिवस के साथ जोड़कर भी देखने की आवश्यकता है। तभी बच्चों के संपूर्ण विकास में परिवार और समाज का योगदान सिद्ध होगा और पुस्तक के फिर से बच्चों की अच्छी दोस्त बन पाएंगी।

डॉ आलोक चांटिया