कश्मीरी पंडितों की पलायन की मजबूरी

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समाचार है कि एक सप्ताह से हो रही टारगेटेड हत्याओं से आतंकित करीब 1400 हिंदू फिर जम्मू पहुंचे। आप 1990 के पलायन को दोहराने से कैसे रोक लेंगे ? विकास से ? देखो, तुम्हारे लिए करोड़ों के काम हो रहे है। जीलानी मरहूम कह गये हैं कि तुम श्रीनगर की सड़कें सोने की भी बनवा दो तो भी हम आजाद होकर रहेंगे। किसी वर्ग को प्रसन्न कर लेना, तुष्टीकरण करना एक ऐसा खेल है, जिसका प्रभाव इस्लामिस्टों पर नहीं पड़ता।

यह काम करके गांधी बाबा फेल हो चुके हैं। पाकिस्तान देना ही पड़ा… तुष्टीकरण एक पिटा हुआ फार्मूला है। लोकतंत्र की मजबूरी ! कोई और फार्मूला है ही नहीं। विकास के इंडेक्स कश्मीर, बंगाल, केरल में काम नहीं आएंगे। सड़कें, स्कूल बनाने, स्वास्थ्य सुविधाएं देने से वे पाकिस्तानपरस्ती छोड़ देंगे, यह भला कैसे संभव है ? अब लोकतंत्र व लोकतांत्रिक नेताओं की अपनी मजबूरियां होती हैं। अगर देश टूटने को भी आ जाएगा तो भी वे हिंसक प्रतिकार, जनसंघर्ष की बात नहीं कर सकेंगे।

सत्ताधारियों ने यह कभी नहीं सोचा कि कश्मीरी पंडितों की सशस्त्र सैन्य ब्रिगेड बनाओ, महिलाओं को, बुजुर्गों व युवकों को, नये बच्चों को लम्बे संघर्ष के लिए तैयार करो। वे नेता तो लोकतांत्रिक हैं, गांधी बाबा की प्रतिज्ञाएं हैं, भला यह कैसे कह दें ? हमारे नेता शांति की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ते रहे हैं और शांति है कि उतना ही दूर भागती जाती है। शांति को छोड़ समाधान पर फोकस हो तब तो समाधान का मार्ग बने।

सवाल है कि आखिर कश्मीरी हिंदू संकट में जम्मू क्यों भागता है ? जम्मू सुरक्षित लगता है। जम्मू जैसा सुरक्षा का भाव, कश्मीर घाटी के पूर्वी क्षेत्र में सेना/अर्धसैनिक बलों के नये कैण्ट क्षेत्रों से आच्छादित एक बड़े इलाके को विकसित कर दो-तीन लाख की क्षमता का एक नया नगर क्षेत्र क्यों पैदा नहीं किया जा सकता। नये टरमिनल, नयी हवाई पट्टी क्यों नहीं बनाई जा सकती।

पूर्वी कश्मीर इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यहां से पर्वतों से होते हुए हिमांचल प्रदेश को सीधा रास्ता बनता है। दूसरी ओर पतनीटाप से लेकर काजी कुण्ड तक के रास्ते को पूर्वसैनिकों, पंजाब, जम्मू, हिमांचली आबादी से आच्छादित क्यों नहीं किया जा सकता ? ऐसा कोई इसलिए नहीं सोच पाता क्योंकि हमें वार्ताओं से समाधान खोजने की बीमारी लगी होती है। वार्ताएं भी उन्हीं से जो इन सब समस्याओं की जड़ में हैं। पैसा बांट कर पहले की सरकारें अस्थायी समाधान करती रही हैं। खून मुंह लग जाता है तो यही समस्याएं और बड़ी होकर सामने आती हैं। एक रा चीफ थे जो पैसा बांटने के माहिर थे और बाकी वक्त शेख अब्दुल्ला की चमचेगीरी किया करते थे।

अगर कश्मीर घाटी में ही सुरक्षित क्षेत्र बनाया गया होता तब कश्मीरी हिंदू जिसे इतनी मुश्किलों से घाटी में भेजा गया है, जम्मू, दिल्ली न भागता। वह उन्हीं सुरक्षित किये गये इलाकों में अस्थायी पनाह लेता। लेकिन हमारी मजबूरी ! हमारी व्यवस्था दायरे से बाहर सोच भी नहीं पाती। ऐसी हालत में जाहे जगमोहन जैसा सशक्त सक्षम प्रशासक हो या हमारे बनारस के सिन्हाजी जैसे विकासकर्ता, कश्मीरी हिंदुओं के पास भी पलायन के अतिरिक्त कोई विकल्प बचता ही नहीं। डेमोग्राफी अर्थात जनसांख्यिक सशक्तिकरण इस समस्या का स्थायी समाधान है। हमें शांतिवादी ढकोसला छोड़कर कश्मीर घाटी में सुरक्षित ‘हिंदू कश्मीर परिक्षेत्र’ बनाने पर गंभीरतापूर्वक विचार करना अत्यंत आवश्यक हो रहा है।

कैप्टन आर विक्रम सिंह