खुशहाल जीवन के लिए प्रेम को आत्मसात करें

0
1560

वर्तमान समाज प्रेम की अपेक्षा मोह में अत्यधिक संलिप्त है तथा समाज इसको स्वीकारता भी नहीं है, बल्कि वह यही कहता है कि वह अमुक समाज, अमुक व्यक्ति, अमुक वस्तु तथा अपने परिवार के सदस्यों के साथ अत्यधिक प्रेम करता है।

इन दोनों शब्दों तथा उनकी क्रिया में मामूली सा अंतर प्रदर्शित होता है। परन्तु वास्तव में इसके भाव तथा परिणामों में बहुत ही बड़ा अंतर है, प्रेम शास्वत गुण है जीवन का आधार है एक बार प्रेम की पहचान कर उससे जुडृने से प्रेम सदैव बढ़ता रहता है परन्तु मोह में स्वार्थ होता है। इसलिए उसमंे समय-समय पर उतार चढ़ाव आता रहता है।

प्रेम एवं मोह दोनों की क्रियाओं मंे भावनायें प्रधान होती है। प्रेम में सदैव कुछ कर गुजरने की इच्छा रहती है अर्थात स्वयं का समर्पण प्रेम करने वाले के प्रति अटूट रहता है परन्तु मोह में स्वार्थ रहता है। इस कारण जब किसी वस्तु से मोह भंग होता है तो व्यक्ति और उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचती है। प्रेम में आजादी है तथा मोह बंधन है।

जीवन के परिपेक्ष्य में प्रेम और मोह के विषय में वस्तुतः यह कहा जाता है कि जीवन बहुत सुंदर है। उससे सदैव प्रेम करो परन्तु व्यावहारिकता यह है कि मनुष्य जीवन पाते ही धीरे धीरे मोह अर्थात आसक्ति में ऐसा जकड़ जाता है कि परम्पिता परमेश्वर की कृपा और उन्हीं के ऊर्जा तत्वों से निर्मित शरीर पर मनुष्य अपना अधिकार समझ बैठता है जबकि उसको यह ज्ञान है कि उसके शरीर को तो एक न एक दिन नष्ट होना है, फिर भी वह अपने शरीर के प्रति इतना अधिक आसक्त हो बैठता है और उसके प्रति कर्तव्य कम और उससे अपेक्षा अधिक रखता है। इन्हीं कारणों से शरीर के ऊर्जा तत्वों में विभिन्न प्रकार के असंतुलन देखने को मिलते है और शरीर को अपने स्वार्थ में उसकी क्षमता से अधिक उपयोग करने से उसमें विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते रहते है।

प्रेम के विषय में परम्पिता परमेश्वर कहते है कि संतान के जन्म का माध्यम कोई न कोइ्र्र मनुष्य अवश्य होता है परन्तु मनुष्य यह भूल जाता है कि संतान का जन्म तो परम्पिता परमेश्वर की इच्छा एवं प्राकृतिक जन्म चक्र के विधानों के अन्र्तगत पूर्व प्रारब्ध को भोगने अथवा परम्पिता द्वारा तय किये गये कर्मो का क्रियान्वयन करने के लिए ही होता है, कोई पिता अपनी संतान को ही जन्म नहीं देता है बल्कि संतान भी मनुष्य को पिता रूपी जन्म देती है। इसलिए पिता और संतान दोनों के अपने-अपने कर्तव्य होते है कि वह प्राकृतिक विधान के तहत एक दूसरे से प्रेम रखकर अपने दायित्वों का निर्वहन करें परन्तु अधिकतर पिता तो यहीं कहते मिलते है कि हमारी संतान हमारा नाम रोशन करेगी, हमारा कर्मो का सहारा बनेगी, हमारे कुल को बढ़ायेगी और हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगी अर्थात पिता अपने हर कर्म और दायित्व में संतान से अपेक्षा ही रखता है तो फिर यह प्रेम कहां हुआ प्रेम में तो केवल कर्तव्य होता है अपेक्षा नहीं।

संतान का जन्म उसके पूर्व संचित कर्मो के भोग के लिए हुआ है। इसलिए जब पिता अपनी इच्छा और अपेक्षा के अनुरूप पुत्र का कर्म नही पाता है तो उसको मानसिक कष्ट पहुंचता है अथवा वह अपने अन्दर असम्मान का भाव भी अनजाने में उत्पन्न करता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में अवतरित होकर प्रेम की परिभाषा को ठीक से समझाया कि मनुष्य को अपनी संतानों, परिवार और समाज के प्रति दायित्वों को निर्वहन कर उनसे प्रेम करना चाहिए न कि स्वार्थी बनकर अपनी ही संतानों एवं परिवार के प्रति दायित्व का निर्वहन करना चाहिए यदि एक चिडियां पंछी का उदाहरण लें, उसमें भी जीव का वास है एक चिड़िया अपने दायित्वों के अनुसार परम्पिता परमेश्वर की इच्छा से परिवार की बढ़ोत्तरी करती है। उसके लिए वह कड़ी मेहनत कर घोसले का निर्माण करती है और संतान को जन्म देती है फिर एक दिन वह उसको उड़ना सिखा देती है और फिर संतान कहीं और तथा उस संतान के जन्मदाता कहीं और उड़कर अपने जीवन का निर्वाह करते है। उनको अपनी संतानों के प्रति केवल प्रेमपूर्ण कर्तव्यों का बोध रहता है न कि अपने संतानों को जीवन भर अपने साथ एक ही घोसले में चिपकाकर रखने का स्र्वाथ प्रत्यक्ष होता है।

मोह मनुष्य को जीवन से मोक्ष पाने में बहुत बड़ी बाधा होती है। वास्तव में शास्त्रों में मोह को ही आसक्ति का नाम दिया गया है यानी मनुष्य न कि केवल अपने संतानों, परिवार और समाज के प्रति मोह रखता है बल्कि उसको रगंविरगीं मायारूपी प्रकृति की हर संुदर रचना अपनी ओर आकृष्ट करती है जब मनुष्य अपनी बुद्वि का प्रयोग कर अपनी अंनत इच्छाओं पर लगाम लगाने में सक्षम रहता है अर्थात केवल अपनी आवश्यकताओं तक ही अपनी सीमितता रखता है तो काफी हद तक वह आसक्ति से बचता है और अगले जन्म के लिए अपने संचित कर्मो में अच्छे कर्मो का संचय अधिक कर लेता है परन्तु यदि मनुष्य अपनी बुद्वि को दरकिनार का माया के भंवरजाल में फंस गया तो उसके लिए जन्म-जन्मांतर तक माया-मोह के बंधन से मुक्त हो पाना काफी दुश्कर होता है।

यहां मोह अर्थात आसक्ति का एक और दुष्परिणाम होता है कि मनुष्य जिससे भी अपनी आसक्ति बना लेता है। फिर वह उस वस्तु को अपने वश में नहीं बल्कि वह स्वयं उस वस्तु अथवा स्थान के अधीन हो जाता है। जैसे मनुष्य जिस शहर के जिस मुहल्ले के जिस घर के जिस कमरे के जिस बेड़ तथा उस बेड के जिस हिस्से में रहता और सोता है, यदि उस मनुष्य को इससे इतर कही भी अलग जीवन यापन करना पड़े अथवा बेड के जिस हिस्से में वह सोता है। उसके विपरीत हिस्से में ही सोना पड़े तो उसको कुछ दिनों तक रहने और सोने में समस्या होती है अर्थात वह असहज रहता है।

ठीक इसी प्रकार से जब मनुष्य का जीवन वस्तु, स्थान, परिवार और समाज आदि की आसक्तियों से सदैव भरा रहता है तो वह वर्तमान जन्म में तो प्रेम और मोह की परिभाषा से अंजान रहकर सदैव दुःखी और द्रवित जीवन यापन करता ही है बल्कि वह आसक्ति उसके मृत्यु के उपरान्त भी उस जीव को बार-बार अपनी ओर खींचती रहती है और जीव सूंक्ष्य शरीर में रहकर भी वह बार-बार उस स्थान, उस वस्तु और उस परिवार के सदस्य अथवा सदस्यों के मध्य आने के लिए तड़पती रहती है और जब भी उसे अवसर मिलता है वह फिर किसी न किसी रूप में यहां तक कि मनुष्य योनि से भी इतर योनि में जाकर उसके निकट ही जन्म लेने का सफल -असफल प्रयास करती है।

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने कर्मो और आचरण में प्रेम और मोह में से सदैव प्रेमपूर्ण का चयन करे ताकि उसकी जीवन यात्रा में सदैव खुशहाली रहे और वह किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा स्थान आदि के मोह जाल से सदैव विरक्त रहकर अगले जन्म के लिए या तो मोक्ष अथवा बेहतर कर्मो से परिपूर्ण संचित कर्मो के लिए रास्ता तैयार करे।

एस.वी.सिंह प्रहरी