भरके चिता की राख झोरी खेलें दिगंबर मसाने में होरी

भरके चिता की राख झोरी खेलें दिगंबर मसाने में होरी काशी की होली का अपना अलग ही रंग और ढंग है रंग भरी एकादशी से श्मशान से शुरू होता है होली का पर्व कीनाराम के अघोर पीठ से निकलती है भोलेनाथ की बारात इस मौके पर होने वाला कवि सम्मेलन अब भी है लोगों के जेहन में

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बनारस की मस्ती, उसका अल्हड़पन अगर उसकी पहचान है तो मसाने की होली और कभी होली पर होने वाला कवि सम्मेलन उसकी सांस्कृतिक धरोहर है, परंपरा है। साल भर लोगों को दोनों कार्यक्रमों का इंतजार रहता था, पर कवि सम्मेलन का आयोजन स्थानीय लोगों के विरोध के चलते बंद हो गया है। इन दोनों कार्यक्रमों में मस्ती का आलम पूरे चरम पर होता था। चूंकि इनमें फूहड़ता का भी समावेश होता था इसलिए महिलाएं इन दोनों कार्यक्रमों में नहीं रहती थीं। यहां तक कि कवि सम्मेलन में तो महिला कवयित्री भी नहीं रहती थीं।

खैर, कवि सम्मेलन तो अब इतिहास की बात हो गया है किंतु मसाने की होली बदस्तूर जारी है। काशी के मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर रंग भरी एकादशी के दिन से ही मसाने की होली से होली का पर्व शुरू हो जाता है। पौराणिक मान्यता है कि रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान भोलेनाथ माता गौरा की विदाई करा कर काशी ले आए थे। उस समय उनका चिता की राख और रंग, अबीर और गुलाल से स्वागत कर होली खेली गई। उसी समय से यह परंपरा चली आ रही है।

धधकती चिताओं के बीच काशी के दोनों घाटों पर होने वाला यह आयोजन विशेष रूप से काशी की प्राचीन परंपरा है। इस उत्सव में अघोरी भी शामिल होते हैं। इस मौके पर अघोर पंथ के पीठ बाबा कीनाराम आश्रम से भोलेनाथ की बारात निकाली जाती है। मसाने की होली के दौरान जीवन और मृत्यु का अनोखा संगम देखने को मिलता है। जलती चिताओं के बीच मस्ती और उमंग का अनोखा संगम महादेव की नगरी काशी में ही हो सकता है। मसाने की होली के दौरान एक तरफ चिताएं जल रही होती हैं और दूसरी तरफ होली खेली जाती है। सुख और दुख का यह अनोखा संगम सिर्फ काशी में ही दिखता है। इस दौरान एक बहुत ही प्रचलित गीत खूब गाया जाता है। इसके बोल हैं-

भरके चिता की राख झोरी,
दिगंबर खेलें मसाने में होरी।
इस प्रकार अड़भंगी की नगरी काशी में मसाने की होली की अपनी जीवंतता है। यहां होली रंग, अबीर और गुलाल से नहीं बल्कि भस्म, भभूत और ठंडी होती चिता की राख से श्मशान में खेली जाती है। जहां मरण को भी मंगल माना जाता है, वहां मसान की होली को उत्सव के रूप में देखना ही काशी की अपनी विशेषता है। वैसे तो पूरे काशी को ही मसान क्षेत्र माना जाता है लेकिन हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट पर अनवरत चिता जलती रहती है। और इन दोनों घाटों पर चिता की राख से ही होली खेली जाती है। मान्यता है कि इस अवसर पर यक्ष, किन्नर, गंधर्व, राक्षस और गणिका अस्थि माला, नरमुंड माला धारण करने वाले प्रतिरूप में शामिल होते हैं। प्रतिवर्ष रविंद्र पूरी स्थित बाबा कीनाराम के अघोर पीठ से हरिश्चंद्र घाट के लिए शोभायात्रा निकाली जाती है। इसमें शामिल लोग शिव की बारात की तरह नाचते-गाते चलते हैं । इसी प्रकार की परंपरा मणिकर्णिका घाट पर भी निभाई जाती है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार इस दिन शिव और माता पार्वती के विवाह के बाद गौना की बारात निकलती है। श्मशान क्षेत्र में आने वाली शोभायात्रा में शामिल लोग नाचते-गाते लहराते निकलते हैं तो लगता है कि ये त्रैलोक्य न्यारी काशी शिव लोक हो गई है। मान्यता यह भी है कि भगवान शिव गौरा को घर पर छोड़कर अपने भक्तों के साथ होली खेलने के लिए श्मशान क्षेत्र में आ जाते हैं। यह भी माना जाता है कि होली खेलते समय वे परिधान विहीन हो जाते हैं। और वे मसान में इसलिए आ जाते हैं क्योंकि वहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। लगता है कि दिगंबर की संज्ञा भी उन्हें इसी कारण मिली।

मसान की होली के अलावा होली पर्व पर हास-परिहास और गाली-गलौज भरा कवि सम्मेलन भी काशी की धरती पर होता था। वैसे तो ये कवि सम्मेलन धरोहर बन गया था पर अस्सी क्षेत्र की स्थानीय जनता के विरोध के चलते अब बंद हो गया है। तकरीबन दो से ढाई लाख तक श्रोता इस कवि सम्मेलन में जुट जाते थे। इसके मंच से वह बड़ी से बड़ी बात जो सामान्य दिनों में राजनीतिक दलों को लोग नहीं कह पाते थे, कह दी जाती थी। और लोग इसका बुरा भी नही मानते थे। दरअसल कवि समुदाय मंच से केवल श्रोताओं को ही नहीं अपनी मां-बहन के लिए भी अश्लील शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में करते थे।

इसके मंच पर खांटी बनारसी अंदाज के लिए मशहूर हास्य व्यंग के पुरोधा चकाचक बनारसी, ठहाका और ठलुआ क्लब के संचालक धर्मशील चतुर्वेदी, भाई जय प्रकाश बागी, नव गीतकार पंडित श्रीकृष्ण तिवारी की गरिमामई उपस्थिति से जन-मन आह्लादित हो उठता था। यह तो पता नही कि हास-परिहास और आनंद से भरूयह कवि सम्मेलन कब प्रारंभ हुआ था, लेकिन बंद हुए दो दशक से अधिक का समय बीत चुका है। काशी का साहित्य प्रेम यहीं देखने को मिलता था। न इस कवि सम्मेलन का प्रचार-प्रसार होता था और न ही श्रोताओं के बैठने की कोई व्यवस्था होती थी। चाय-पानी की व्यवस्था तो दूर की बात है। इतनी बड़ी भीड़ सिर्फ गाली सुनने के लिए कहां से जुट जाती थी, इसका कोई अंदाजा लगा पाना मुश्किल था। इसका कोई विज्ञापन भी नहीं होता था। और न ही भीड़ में विज्ञापन से कोई कमाई ही होती थी। हां, एक बात अवश्य थी कि उस दिन अश्लील साहित्य चोरी छिपे खूब बिकता था।

कुल मिलाकर पूरी दुनिया में इस तरह का साहित्य प्रेम कहीं और और देखने को नहीं मिलता था। वैसे तो विभिन्न अवसरों पर कवि सम्मेलन मुशायरे तो आयोजित होते ही रहते हैं पर यह अनोखा कवि सम्मेलन केवल अड़भंगी की नगरी में ही संभव था। जैसे फिल्मी गीतों को समीक्षकों ने कभी तवज्जो नहीं दिया उसी प्रकार साहित्य के इस वाचिक परम्परा को भी किनारे कर दिया गया। इस कवि सम्मेलन का सबसे अहम पक्ष यह था कि इसमें कवयित्री प्रतिभाग नहीं करती थीं। यही नहीं इस दौरान अस्सी इलाके के आस-पास की महिलाएं अपना घर छोड़कर सगे-संबंधियों के घर चली जाती थी। दरअसल इस कवि सम्मेलन और मसान की होली में महिलाओं का प्रतिभाग नहीं होता था। मसान की होली में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है तो कवि सम्मेलन की अश्लीलता का वे बहिष्कार करती थीं।‌

अशोक चौबे, वाराणसी