पर्यावरण का रोना और विश्व साइकिल दिवस

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विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाएगा.. बहुत से सेमिनार होंगे, गोष्ठियां होंगी, विज्ञापनों पर अरबों रुपया खर्च किया जाएगा, रैली निकाली जाएगी, लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर फोटो लगाई जाएंगी ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके।

वैसे तो 3 जून को भारत के संदर्भ में इस रूप में याद रखा जाता है कि आज ही के दिन लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत पाकिस्तान को दो भागों में बांटने के दस्तावेजों को मंजूरी दे दी थी लेकिन वहीं पर विश्व के स्तर पर अमेरिका के मोंटगोमरी कॉलेज के प्रोफेसर सिबिल्सकी जो समाजशास्त्र पढ़ाते है वह अपने विद्यार्थियों के साथ इस बात को लेकर वर्ष दो हजार अट्ठारह से चिंतित हैं कि कैसे प्रकृति को सुंदर बनाए रखा जाए?

कैसे वास्तविक पर्यावरण को हम अपने संस्कृति के माध्यम से और बेहतर बना सके। इसीलिए उन्होंने इस बात का प्रयास किया कि पूरे विश्व में साइकिल चलाने के प्रयास को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए? आरंभ में उनकी इस बात को सुना ही नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस बात की उपेक्षा कर दी। लेकिन उन्होंने अपने समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के साथ मिलकर सोशल मीडिया पर इसका एक अभियान चलाया और उसका परिणाम यह हुआ कि विश्व के 56 देशों द्वारा उनके इस अभियान को समर्थन मिला। जिसके कारण 3 जून 2018 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व साइकिल दिवस के रूप में घोषित किया।

वैसे तो भोपाल के गैस कांड के बाद यह भी शोध से सामने आ चुका है कि साइकिल की टायरों से भी मेथिल आइसो साइनाइड नाम की गैस निकलती है। यह गैस कितनी जहरीली होती है ये सबको पता है लेकिन अपेक्षाकृत स्कूटर मोटरसाइकिल कार ट्रक आदि से बेहतर होती है। इसलिए यदि हमें खतरों के साथ रहना है तो न्यूनतम खतरे के साथ रहा जाए और ऐसी स्थिति में साइकिल बेहतर विकल्प है।

..क्योंकि जब हम साइकिल चलाते हैं तो ना सिर्फ हमारे शरीर की मांसपेशियों में एक सकारात्मक खिंचाव पैदा होता है बल्कि रक्त का संचालन भी बेहतर होता है। शरीर कई रोगों से बचाता है। सबसे ज्यादा पर्यावरण रोज के पेट्रोल डीजल से चलने वाली गाड़ियों के निकलने वाले धुएं से बच जाता है। ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण का समापन हो सकता है और इस अर्थ में विश्व साइकिल दिवस निश्चित रूप से किसी भी उस संवेदनशील व्यक्ति के लिए एक आवाहन है जो विश्व को बचाना चाहता है। अपने देश के पर्यावरण को बचाना चाहता है।

वैसे तो भारत जैसे देश में प्रधानमंत्री के आवाहन किए जाने के बाद भी स्वच्छता मिशन की जो स्थिति है उससे स्पष्ट है कि नागरिक सिर्फ अपने जीवन की मकड़जाल में इतना उलझा हुआ है कि वह स्वच्छता जैसे विषय पर भी उदासीन है लेकिन वैश्विक स्तर पर ऐसा नहीं है। नीदरलैंड जैसे देश को तो साइकिल का देश कहा जाता है, जहां के लोग प्राकृतिक सुंदरता को बचाने के लिए और बनाए रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा साइकिल का उपयोग करते हैं।

यहां तक कि नीदरलैंड के प्रधानमंत्री ही मार्क रूट भी साइकिल से चलते हैं। लेकिन भारत में एक आम आदमी से लेकर कोई भी अधिकारी नेता जब तक अपने पास कई गाड़ियां न रख ले उसे सुकून ही नहीं मिलता है| वह यह सोच ही नहीं पाता कि समाज में उसकी कोई इज्जत है और यह भी सच है कि आज के दौर में भारत जैसे देश में इस अर्थ में मानसिक उन्नति बिल्कुल शून्य है। जिसमें लोगों की इज्जत उसके पास होने वाली गाड़ी के माध्यम से की जाती है।

यहां तक कि यह ताना तक लोग दे देते हैं कि अरे अभी तक तुम साइकिल से चल रहे हो और यही कारण है कि साइकिल एक स्टेटस से जोड़कर देखा जाने वाला प्रयास ज्यादा बन गया है। इसलिए उसको रखना लोग अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के खिलाफ भी मानते हैं। यही कारण है कि विश्व साइकिल दिवस यहां पर एक अनजाना सा विषय है। वह बात अलग है कि साइकिल को चुनाव चिन्ह के रूप में उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में जाना जाता है लेकिन साइकिल का उपयोग कितना किया जाना चाहिए। इस पर कोई भी पार्टी खुल कर ना बोलती है ना प्रयास करती है।

..जबकि जी है तो जहान है जैसे प्रसिद्ध मुहावरे को स्थापित करके भारत सदैव से यह स्थापित करना चाहता है कि वह जीवन के प्रति संवेदनशील है लेकिन जैसे वह हर जहरीले और स्वास्थ्य के लिए नकारात्मक प्रभाव डालने वाले भौतिक संस्कृति को अपनाता जा रहा है। उससे यही प्रतीत होता है कि भारत में लोग चंदन से ज्यादा सर्प बनने का प्रयास कर रहे हैं और अपने अंदर इतना जहर रख लेना चाहते हैं जिससे एक उत्तम और स्वस्थ शरीर की कल्पना करना निरर्थक होता जा रहा है। और जो वर्तमान की परिस्थिति में महसूस भी किया जा सकता है।

वैसे तो भारत विश्व गुरु होने का प्रयास सदैव से करता रहा है और अपने को मानता रहा है लेकिन वास्तव में विश्व के दूसरे देश भारत के लिए सदैव ही एक आईना बन कर उभरे हैं। डेनमार्क जैसे देश की राजधानी कोपेनहेगन को सिटी ऑफ साइकिलिस्ट कहा जाता है जहां के सभी लोग ज्यादातर साइकिल ही चलाते हैं। वैसे तो भारत में भी साइकिल में बहुत ही श्रेणियां दिखाई देने लगी हैं और साइकिल इतनी महंगी बिकने लगी है कि उसे भी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़कर खरीदने का प्रचलन बढ़ा है लेकिन उसका उपयोग सिर्फ मॉर्निंग वॉक तक ही सीमित रह गया है।

.. लोग अभी अपने ऑफिस या किसी रिश्तेदार के घर साइकिल से जाने में परहेज कर रहे हैं। अखिल भारतीय अधिकार संगठन स्वयं इस मुहिम में काफी समय से लगा है कि गाड़ियों का उपयोग कम से कम किया जाए और पैदल ही चला जाए लेकिन इस मुहिम में ज्यादातर लोग इस तथ्य के आधार पर ज्यादा विश्लेषण करते हैं कि आप की आर्थिक स्थिति क्या है और उस आर्थिक स्थिति के कारण ही क्या आप साइकिल से चलने की वकालत कर रहे हैं।

..और इस तरह की सोच के कारण ही देश में पर्यावरण उपेक्षित हो जाता है और ऐसा प्रतीत होता है। जैसे भारत में सभी विष पीकर ही जीने में विश्वास रखते हैं। यही कारण है कि भारत के पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण सुरक्षा के अंतर्गत साइकिल से चलने को भी अपने उद्देश्यों में जोड़ना पड़ेगा और इसके लिए बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू करनी पड़ेगी। जिससे लोगों को साइकिल चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और वास्तविकता में विश्व साइकिल दिवस, जोकि विश्व पर्यावरण दिवस के पूर्व का एक चरण बन चुका है। उस के माध्यम से पर्यावरण को ना सिर्फ सुंदर बनाया जा सके बल्कि लोगों के सुंदर स्वास्थ्य को भी वास्तविकता में बिना औषधि के स्थापित किया जा सके और इसी विमर्श को विश्व साइकिल दिवस के दिन समझने और स्थापित करने की आवश्यकता है।

डॉ आलोक चांटिया