प्रकृति परिवर्तन के स्थान पर जीवन शैली में करें बदलाव

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प्रकृति परमपिता परमेश्वर की मायारूपी विशेष कृति है, जो अपने सिद्धातों के अनुसार संसार में जीव-जंतु, मनुष्य तथा बनस्पतियों आदि 84 लाख योनियों का सृजन, पोषण, संतुलन तथा संहारक का कार्य अनवरत करती रहती है।

इन्हीं सिद्धातों के तहत समस्त योनियों के जीव एक दूसरे के सृजन, पोषण, संतुलन एवं संहार का माध्यम एवं पूरक बनते है। इन 84 लाख योनियों में केवल मनुष्य योनि के पास ही पूर्ण चेतन है। शेष योनियों में चेतन अपूर्ण स्थिति में अथवा जड़ स्थिति में होता है अर्थात ऐसे जीवों को स्वतंत्र कर्म करने का अधिकार नहीं होता है बल्कि वे समस्त जीव प्रकृति द्धारा पूर्व नियत प्रारब्ध के अनुसार ही अपने कर्मो को कर पातें है।

परन्तु मनुष्य को नियत प्रारब्ध कर्मो के साथ ही स्वतंत्र कर्म करने का भी अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार इसलिए प्राप्त है कि वह अपनी चेतना अंश रूपी बुद्धि का प्रयोग कर जीवों के कल्याण हेतु प्रकृति के विकास के कार्यो एवं संतुलन में अपेक्षित सहयोग प्रदान करे। लेकिन वर्तमान समाज जीवों के कल्याण हेतु प्रकृति के विकास एवं संतुलन के कार्यो से भटककर अपनी इन्द्रियों के सुख के लिए भौतिकता की चकाचौंध मेें फंसता जा रहा है।

मनुष्य ने अपनी बुुद्धि से तमाम आविष्कार कर भौतिकीय उपलब्धियां तो हांसिल की है परन्तु उनमें से तमाम आविष्कार आवश्यकता प्रधान के स्थान पर इच्छा प्रधान होते चले गये। जिससे प्रकृति के सिद्धांतों एवं संतुलन में क्षति पंहुच रही है।

उदाहरणार्थ पूर्व के युगों का यदि अध्ययन करें तो पृथ्वी तत्व से उपजे शुद्ध अन्न, प्राकृतिक जल का सेवन तथा योग एवं प्राणायाम से अपने शरीर में वायु, अग्नि तथा आकाश तत्वों का संतुलन करके हमारे पूर्वजों की आयु सीमा हजार वर्ष होती थी और आज के मनुष्य की आयु सीमा सैकड़ा तक नहीं पहुंच पा रही है। निश्चित तौर पर हजार वर्ष का जीवन निरोगी शरीर से ही संभव रहा होगा। लेकिन वर्तमान युग में बच्चों का जीवन जन्म होने के साथ ही तमाम वैक्सीन एवं दवाओं के सहारे आगे बढ़ता है।

वर्तमान में जल की शुद्धता हेतु वाॅटर फिल्टर/ आर.ओ. का आविष्कार, घरों में फ्रिज एवं एयरकण्डीशन का प्रयोग तथा उससे निकलने वाली वायु के शोधन हेतु एयर फिल्टर का आविष्कार, रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं का आविष्कार, ट्रांस्पोर्ट तथा फैक्ट्रियों के संचालन हेतु डीजल, पेट्रोल सहित तमाम केमिकल का आविष्कार, स्वास्थ की जांच हेतु तमाम केमिकल एवं रेडियेशनयुक्त मशीनों का अविष्कार, आकाश मेें राकेट, हवाई जहाज, रक्षा-सुरक्षा एवं संचार उपकरणों हेतु सयंत्रों की स्थापना आदि हजारों ऐसे आविष्कार किये गये है।

यह सत्य है कि सामाजिक सुख-समृद्धि हेतु किये गये ये तमाम आविष्कारों से भौतिकीय प्रगति तो प्रत्यक्ष हो रही है परन्तु सत्यता यह भी है कि ऐसे ही कुछ आविष्कारों के उपयोग से समाज का जीवन भी संकटपूर्ण प्रत्यक्ष होता दिख रहा है।

आप स्वयं विचार करें कि केमिकल एवं कीटनाशक का उपयोग कर उपजे तथा आधुनिक रंगों से रंगे अन्न, फल एवं शब्जियों का उपयोग करके क्या हम सभी स्वस्थ्य रह सकते है, प्राकृतिक जल संरक्षण के स्थान पर जल का दोहन होने से कुंए, तालाब, पोखर एवं नदियों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है। खेतों की सिचाई एवं पीने के पानी निकालने के लिए बोरिंग करके जल का दोहन हो रहा है।

इसके कारण पृथ्वी में जल का स्तर निरंतर काफी गिर रहा है और तमाम पशु-पक्षी एवं पेड़-पौधों का जीवन नष्ट हो रहा है, जगंल समाप्त होने से वायुमण्डल में वायु एवं पर्यावरण का असंतुलन होता है अर्थात वातावरण में आॅक्सीजन की कमीं तथा अन्य जहरीली गैसों की बढ़ोत्तरी हो रही है, वायुमण्डल में 3जी, 4 जी एवं 5 जी जैसे संचार संयत्रों से निकलने वाले रेड़ियेशन तथा जलवायु परिवर्तन से तमाम बीमारियां उत्पन्न हो रही है।

साथ ही कई पशु-पक्षियों, जीव-जतुंओं और बनस्पतियों की नस्लें तक समाज से अदृश्य होने की खबरे मिलती है। मनुष्य की बीमारियां के इलाज में केमिकल एवं रेडियेशनयुक्त आधुनिक चिकित्सा का उपयोग हो रहा है, जहां आज भी तमाम बीमारियों को समूल नष्ट करने का इलाज नहीं है। कुल मिलाकर यह समझने का विषय है कि प्राकृतिक उपहार रूपी बुद्धि से मनुष्य द्धारा किये गये आविष्कारों से सामाजिक सुख-सुविधाओंयुक्त भौतिकीय प्रगति तो हुई परन्तु उन आविष्कारों के दुष्परिणाम स्वरूप प्रकृति के तत्व भी असंतुलित हो रहे है। जिससे वर्तमान समाज विभिन्न प्रकार की लाइलाज बीमारियों से ग्रसित हो रहा है। यहां तक कि उसकी आयु सीमा और कद-काठीं में भी निरन्तर कमीं प्रत्यक्ष हो रही है तो फिर इन भौतिक सुख-सुविधाओं वाली संस्कृति के आलिंगन करने से समाज को क्या फायदा?

वर्तमान समाज की जीवन शैली भौतिकीय सुविधाओं से इतनी घुल-मिल चुकी है कि यदि वह चाहे भी तो उसके लिए एकाएक जीवनशैली में परिवर्तन कर पाना संभव नही है। लेकिन यदि समाज भविष्य में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ तथा उसकों प्रदूषित एवं असंतुलित करने वाले आविष्कारों से बचें अर्थात प्रकृति को परिवर्तित करने के स्थान पर अपने अंदर परिवर्तन कर प्रकृति के साथ जीनें की आदत डालें तो आरोग्यतापूर्ण जीवन जीना संभव है अन्यथा अभी तो समाज तमाम असाध्य रोगों तथा कोरोना जैसे महामारी से जूझ रहा है तो आगे भविष्य में और क्या-क्या होगा?

इन परिस्थितियों से निपटने के लिए हम सभी को अपने मन-मस्तिष्क में एक छोटा सा प्रश्न पैदा करना है कि पूर्व युगों के समाज में जीवन जीने की ऐसी क्या संस्कृति थी? जिससे वह अच्छी कद-काठीं के साथ आरोग्य रहकर भयमुक्त हजार वर्षो तक का जीवन जीते थे और वर्तमान युग में हम सभी किस प्रकार की संस्कृति को अपना रहे है। जिससे हम अपना जीवन तनावयुक्त, भययुक्त और रोगों के साथ जी रहे है तथा 100 वर्ष की आयु सीमा भी प्राप्त करना अब सपना बन गया है और पूर्व के युगों में औसत लम्बाई 8-9 फीट से घटकर वर्तमान में मनुष्य की लम्बाई 5 फीट से भी नीचे जाने को बेकरार हो रही है।

उपाय यही दिखता है कि आरोग्य रहने हेतु पंचतत्वों से निर्मित अपने मन और शरीर को निरन्तर प्रकृति के इन्हीं पंचतत्वों अर्थात पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्व के संसर्ग में रखकर इनकी प्राकृतिक ऊर्जाओं से ऊर्जित करते रहे। साथ ही अपने आपको परिवर्तित करते हुए प्राकृतिक संशाधनों का अपने जीवन में उपयोग करें तथा रोग, भय एवं मन के अशांति की स्थिति में अध्यात्म को अपनायें।

आध्यात्मिक नियमों का ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण विश्वास एवं आस्था के साथ प्राकृतिक योग, प्राणायाम, ध्यान, प्राकृतिक आयुर्वेद चिकित्सा, शुद्ध एवं स्वच्छ प्राकृतिक खान पान को अपनी जीवन संस्कृति बनायें। इसके अतिरिक्त प्रकृति के पंचतत्वों को प्रदूषण मुक्त बनाने एवं संतुलित रखने हेतु बरसात के जल का संरक्षण करने, उपयोग किये जल का री-साइकिलिंग कर पुर्नउपयोग योग्य बनाने, भूमि से जल के दोहन को रोकनें, अधिकाधिक आॅक्सीजन देने वाले तथा कार्बनडाई आॅक्साइड सहित अन्य जहरीली गैस सोखने अर्थात ग्रहण करने वाले पेड़ पौधों का रोपड़ करनें, कीटनाशक एवं रसायनयुक्त अन्न, फल एवं सब्जियों के उपयोग से दूरी बनाकर प्राकृतिक हरी एवं गोबर की खाद का उपयोग कर फसलों एवं फलों की उपज करने, जगंलों की कटाई बंद कराने, हवन एवं पूजन कर प्राकृतिक वायु के वातावरण को शुद्ध करने जैसे तमाम उपायों को अपनाने में सफलतम प्रयास आज से ही प्रारम्भ करें ताकि इस प्रकार की एक-एक आहुति को देखकर निश्चित तौर पर समाज में भी बदलाव देखने को शीघ्र ही मिल सकता है।

एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’