बजट की आहट : मध्यम वर्ग को जोर का झटका धीरे से लगेगा !

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बजट की आहट : मध्यम वर्ग को जोर का झटका धीरे से लगेगा !…. देश में पेट्रोल डीजल, बिजली, खान-पान, बस-रेल भाड़ा इतना महंगा होता जा रहा है कि सामान्य स्तर के परिवारों के लिए खुद का आशियाना, ठीकठाक आहार दिवास्वप्न की श्रेणी में शुमार हो गया है। दवा अस्पताल, शिक्षा, सैर सपाटे के मद पर खर्च करने की न तो सोचने की स्थिति बनती है और न ही हैसियत। इस लेखक ने हाल ही में दिहाड़ी मजदूरों को यह कहते हुए सुना कि’ लगता है कि देश से निम्न और निम्न मध्यम वर्ग का सफाया हो जाएगा’।

बहुसंख्य लोगों की आमदनी बढ़ने के बजाय संकुचित हुई है, आमतौर पर और खासकर सरकारी कर्मियों की उत्पादकता वास्तव में नहीं बढ़ी। सरकारी स्तर उत्पादकता आधारित वेतन-भत्तों के निर्धारण की बात करना उपयुक्त नहीं रह गया। ये तो हर साल न्यूनतम बढ़ने बढ़वाने का नैसर्गिक अधिकार बन चुका है। तमाम नियम कानून सिर्फ निजी क्षेत्र के ऊपर लागू होते हैं लेकिन बिना किसी वैधानिक आधार के सरकारी महकमों और इनके कर्मी इनके प्रावधानों से सिर्फ मुक्त ही नहीं बेखौफ होकर काम करते हैं।

कुछ मामलों में सरकारी नीतयां कोविड काल में खरबपतियों की अवसरवादी नीति को बहुत पहले पीछे छोड़ चुकी हैं। मसलन ईंधन। अंतरार्ष्ट्रीय बाजार में जब भी पेट्रोलियम सस्ता हुआ तो भी जनता तक उसका लाभ नहीं पहुंचाया जाता रहा बल्कि दाम बढा़कर महंगाई ‘लपट में घी’ डाला गया। दिल्ली में 2020, 1 जनवरी को पेट्रोल और डीजल का बिक्रीमूल्य क्रमश:75.14 रु‌पये व 67.60 रुपये प्रति लीटर था, जो 2021, 26 जनवरी को 86 रुपये व 76 रुपये के ऊपर आ पहुंचीं। व्यापार की तर्ज पर एक वर्ष में पेट्रोल का 15 फीसद और डीजल का 12 फीसद महंगा हो जाना अपने आप में मायने रखता है। ‌‌

सरकारी रिकार्ड के अनुसार खुदरा महंगाई 2020, जून में 7.72 से बढ़कर जुलाई में 9.62 फीसद दर्ज की गई। मुद्रास्फीति पिछले छ:सालों में अपने सर्वोच्च स्तर को पार कर 7.6 फीसद पर जा पहुंची, और खाद्य मुद्रास्फीति का 11 फीसद से अधिक हो जाने से जनमानस की व्यथा को समझा जाए। अर्थव्यवस्था में रोजगार की हानियों का दर्द अलग पिछाड़ी दिशा में ले गया। सेवा क्षेत्र में 5.5 फीसद और मैन्यूफैक्चरिंग यानी फैक्ट्रियों कारखानों में 11.4 फीसद हानि की भरपाई कैसे हो पाएगी। जबकि कोविड के चलते महिला कामगारों में बेरोजगारी का प्रतिकूल प्रभाव जीडीपी पर और भी अधिक पड़ा। कृषि पर आइए। आंकड़ों से खुलता है कि पिछले दस वर्षों में कृषि क्षेत्र को उपलब्ध कराई गई ॠण सहायता में 500 फीसद का भारी इजाफा दर्ज किया गया, इसके बावजूद देश के 12.56 करोड़ लघु सीमांत कसानों में से 20 फीसद तक यह पहुंची नहीं या …। अलबत्ता बैंकों का लाखों करोड़ रुपया एनपीए हो गया, कोई तो बताए करदाताओं से प्राप्त ये रकमें सालों से लगातार कहां किसे मजबूत कराती आ रहीं हैं ? जो सहायता वाकई में मुहैया हुई भी तो उसका उचित उपयोग किस स्तर तक किया गया, इसकी निगरानी के लिए देश के न तो बैंकिंग उद्योग, वित्तीय संस्थान और न ही नीति निर्धारकों ने 70 सालों में कारगर प्रणाली विकसित की, क्यों ?

कुछ स्वास्थशास्त्रियों के मतानुसार स्वास्थ्य के मद पर खर्च काफी कमती होता है और इसका सीधा संबंध आर्थिक बेहतरी से है ,जीडीपी के 2.5 फीसद के बराबर इस मद पर व्यय करके स्वास्थ्य और अर्थ दोनों को सशक्त किया जा सकता है। मौजूदा स्थिति यह है कि देश में अस्पताल उपचार के लिए प्रति दस हजार व्यक्तियों पर सिर्फ पांच बेड की व्यवस्था हम कर पाए हैं और कहने को सबसे बड़े लोकतंत्र हैं हम और पांच ट्रिलियन का कद भी हासिल करने का प्रिंटेड बैनर हमारे हाथों में आ गया है और डिजटल से भी आगे मनोमस्तिष्क में पैठ भी गया ,कमाल है। (जारी)

प्रणतेश नारायण बाजपेयी