लोकसभा चुनाव : बहुत कठिन है डगर बसपा की……. कांशीराम जी के स्थापित मूल्यों पर चलकर ही बहुजनों को मिलेंगे अधिकार….. बहुजन नायक कांशीराम जी ने जिस विचारधारा और उद्देश्य के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था, इन दिनों मौजदा बसपा नेतृत्व ने इस विचारधारा और सिद्धांतों को दरकिनार कर रखा है। बसपा के गठन में मूल रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज को एकजुट कर इन्हें इनके संवैधानिक अधिकारों को दिलाने के लिए संघर्ष करने का जो मार्ग कांशीराम जी ने प्रशस्त किया वह सामाजिक व्यवस्था में सबसे कमजोर वर्ग के लिए था।
बहुजन समाज को संगठित करने के लिए ही उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी। कांशीराम जी ने पिछड़ा वर्ग को उनकी आबादी के मुताबिक उनका अधिकार दिलाने के लिए भी संघर्ष किया, पार्टी की स्थापना के बाद कांशीराम जी के नेतृत्व में इस विचारधारा को आगे बढाने के लिए उनके प्रयास चलते रहे और उनके अधिकारों को दिलाने के लिए संघर्ष चलता रहा, लेकिन कांशीराम जी के निर्वाण के बाद उनका मिशन और मूवमेंट रुक गया। मायावती जी ने बहुजनों को जोड़ने का काम ख़त्म कर दिया और वे यहीं नहीं रुकीं जो लोग पार्टी में बहुजनों के हित की बात करते थे विभिन्न समाज के ऐसे सभी दलित और पिछड़ा वर्ग के नेताओं जिनमें आरके चौधरी, केके गौतम, दद्दू प्रसाद लालजी वर्मा, रामअचल राजभर आदि हैं इन्हें एक-एक करके पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
जबकि इस समाज के लोगों को पार्टी से जोड़ने का कोई काम नहीं हुआ। यही वजह रही कि कांशीराम जी की विचारधारा को आगे लेकर बढ़ी जिस बसपा ने यूपी में वर्ष 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी, वर्ष 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में यूपी में महज एक सीट पर सिमट कर रह गयी। लोकसभा चुनाव 2024 में एकला चलो की राह पर बसपा चुनाव मैदान में है, हालाँकि वर्ष 2007 के बाद से लगातार बसपा का जनाधार गिर रहा है और सीटों के लिहाज से भी पार्टी लगातार कमजोर हो रही है, बसपा वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं हासिल कर सकी, वर्ष 2022 में यूपी में हुए विधानसभा चुनाव में एक सीट पर सिमटने के साथ ही इनके वोट प्रतिशत में भी भारी कमी आई, कभी 30 प्रतिशत तक वोट पाने वाली बसपा इस चुनाव में लगभग 13 प्रतिशत पर ही सिमट कर रह गयी, देश में हो रहे लोकसभा चुनाव में इस बार फिर बसपा अकेले चुनाव मैदान में है। इस समय यूपी से बसपा के दस सांसद हैं, लेकिन ये सपा से गठबंधन के कारण अपनी जीत दर्ज करा सके थे, इस चुनाव में बसपा अकेले मैदान में है और खासतौर पर यूपी की सभी 80 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार रही है।
अब देखना ये है कि बसपा अकेले मैदान में उतरकर खुद कुछ हासिल करेगी या इनके मैदान में होने का सीधा फायदा संविधान विरोधी ताकतों को होगा, फ़िलहाल इस लोकसभा चुनाव में बसपा की डगर बहुत ही कठिन है। वैसे ये बहुजन समाज के लोगों का दुर्भाग्य ही है कि बसपा प्रमुख मायावती जी ने कांशीराम जी के मिशन को लगभग समाप्त कर दिया है, ऐसे में वंचित और शोषित समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वे संविधान व लोकतंत्र बचाने की लड़ाई लड़ रहे दल के साथ खड़े हों क्योंकि भारतीय संविधान में ही सभी वर्ग के गरीबों, महिलाओं, दलितों, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज के अधिकार सुरक्षित हैं, अगर संविधान ही नहीं बचाया और भारतीय संविधान बदल दिया गया तो इन वर्गों के सारे अधिकार स्वत: ही ख़त्म हो जायेंगे, लेकिन आज का बसपा नेतृत्व पार्टी की मूल विचारधारा और बहुजन नायक कांशीराम और बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के मूल्यों से दूर होता जा रहा है, जिसकी वजह से बहुजन समाज कमजोर हो रहा है।
देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, ये चुनाव देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं संवैधानिक स्थिति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। वर्तमान में सांप्रदायिक ताकतें मजबूत हो रहीं हैं, ऐसे हालात में कांशीराम जी के सपनों को साकार करने के लिए उनके अनुयायी बहुजन समाज के समग्र हित को ध्यान में रखते हुए जातीय जनगणना कराने और संविधान बचाने के लिए अपनी आवाज बुलंद करें, लेकिन इन मुद्दों पर बसपा के मौजूदा नेतृत्व से समर्थन की उम्मीद करना बेमानी होगा, क्योंकि देश से दलित उत्पीडन एक्ट को ख़त्म किये जाने के विरोध में 2 अप्रैल 2018 को दिल्ली में हुए आन्दोलन से भी बसपा ने अपने को दूर रखा था। इतना ही नहीं इस बीच दलित उत्पीडन की सैकड़ों घटनाएँ घटित हुईं लेकिन ना तो बसपा प्रमुख मायावती जी और ना ही उनकी पार्टी की तरफ से ही कोई आन्दोलन किया गया और इन मुद्दों को लेकर चल रहे आन्दोलन से भी बसपा ने अपने को दूर रखा। हाथरस में दलित युवती के साथ सामूहिक दुराचार और उसकी नृशंस हत्या के बाद भी हुए आन्दोलन से बसपा प्रमुख ने किनारा किये रखा। वर्ष 2012 के बाद से पार्टी में बहुजन समाज के लोगों का पार्टी की विचारधारा के साथ जोड़ने का सिलसिला भी लगभग थम सा गया है।
सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष एवं पूर्व आईएएस कुंवर फ़तेह बहादुर का मानना है कि बहुजन समाज का यह दुर्भाग्य है कि जिस विचारधारा एवं उद्देश्य के लिए बसपा का गठन किया गया था, मायावती जी के नेतृत्व में पार्टी ने अपने को अलग कर लिया है, जिसकी वजह से बहुजन समाज को संगठित करने का मिशन रुक गया है। बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के मिशन को कांशीराम जी जिस स्तर पर आगे ले आये थे मायावती जी के नेतृत्व में ये काफी पीछे चला गया है, इसके उलट संविधान विरोधी और सांप्रदायिक ताकतें मजबूत हो रहीं हैं, इनसे मुकाबला करने के लिए संविधान पर विश्वास रखने वाले और साम्प्रदायिकता का विरोध करने वाले लोगों को एक साथ आना होगा।
ऐसे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे दलों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह बहुजन समाज के लोगों को उनके आबादी के मुताबिक हिस्सेदारी देने की बात करें। कुंवर फ़तेह बहादुर की चिंता है कि वंचित समाज की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी समाप्त हो रही है। लोकसभा चुनाव चल रहे हैं, ऐसे में बहुजन समाज के ही कुछ नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दीर्घकालीन सामाजिक हितों के विरुद्ध काम कर रहे हैं। जब समाज का मान-सम्मान और अस्तित्व खतरे में हो तो सबको एकजुट होकर संविधान विरोधी ताकतों को शिकस्त देने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करना चाहिए।
कमल जयंत