त्याग और तपस्या का प्रतिरूप हैं ब्रह्मचारिणी

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द्वितीय नवरात्री माँ ब्रह्मचारिणी पौराणिक कथा!….. नवरात्री के द्वितीय दिवस मान्यताओं के अनुसार देवी त्याग और तपस्या का प्रतिरूप हैं, उन्हें वेद-शास्त्र आदि की ज्ञाता भी माना जाता है। माता ब्रह्मचारिणी के वस्त्र धवल हैं तथा उनके दाएं हाथ में अष्टदल कमल एवं बाएं हाथ में कमंडल सुशोभित है। उनका यह दिव्य स्वरुप भक्तों एवं सिद्धों को अमोघ फल देता है, उनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार एवं संयम की वृद्धि होती है। माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा प्राप्त होने से मनुष्य को जीवन में विजय प्राप्त होती है।

मां ब्रह्मचारिणी की कथा :-देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें ब्रह्मचारिणी नाम से जाना गया। एक हजार वर्ष इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया।कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए।

कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को भी छोड़ने के कारण ही इनका नाम अपर्णा पड़ गया कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की, यह आप से ही संभव थी। आपकी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ, जल्द ही आपके पिता आपको लेने आ रहे हैं।माँ की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।