लखनऊ/नयी दिल्ली। बीते आठ अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए परमादेश जारी करने का मामला एक बार फिर चर्चा में आ गया है। देश के नये प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई के शपथ ग्रहण के दिन ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संदर्भ पत्र भेजकर सुप्रीम कोर्ट से इस पर राय मांगी है। राष्ट्रपति ने पत्र में कुछ सवाल भी उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट से पूछा गया है कि जब राष्ट्रपति और राज्यपालों को संविधान में विवेकाधिकार दिए गए हैं तो उन्हें कोर्ट के आदेश से सीमित कैसे किया जा सकता है। पत्र में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए गए हैं। आठ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आने के बाद उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी सवाल उठाए थे। इसके अलावा इस मामले बोलकर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे भी सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की कार्रवाई के चक्कर में फंसे हुए हैं। देश का विपक्ष हमेशा की तरह सरकार के खिलाफ बैटिंग में लगा हुआ है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के बीते 8 अप्रैल के उस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई है, जिसमें उसने राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा निर्धारित की है। राष्ट्रपति ने इस फैसले को संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के विपरीत बताया है। और साथ ही इसे संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण भी करार दिया है। राष्ट्रपति ने कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में ऐसी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। राष्ट्रपति ने संदर्भ पत्र में कहा है भारतीय संविधान में राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय के लिए किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं है। राष्ट्रपति और राज्यपालों के निर्णय संविधान के संघीय ढांचे, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्र की सुरक्षा और शक्तियों के पृथक्करण जैसे बहुआयामी विचारों पर आधारित होते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत राष्ट्रपति ने शीर्ष न्यायालय से 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। संविधान का यह प्रावधान बहुत कम उपयोग में आता है। लेकिन केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने इसे इसलिए चुना क्योंकि उन्हें लगता है कि समीक्षा याचिका उसी पीठ के समक्ष जाएगी जिसने मूल निर्णय दिया है और उसके सकारात्मक परिणाम की संभावना कम है। सुप्रीम कोर्ट की जिस पीठ ने फैसला सुनाया था उसमें जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि ‘राज्यपाल को किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। इस समय सीमा में राज्यपाल या तो स्वीकृति दें या पुनर्विचार हेतु लौटा दें। यदि विधानसभा पुनः वही विधेयक पारित करती है तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर उसकी स्वीकृति देनी होगी। इसके अलावा यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा गया हो तो राष्ट्रपति को भी उस पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि यदि विधेयक तय समय तक लंबित रहे तो उसे ‘मंजूरी प्राप्त’ माना जाएगा। अपने संदर्भ पत्र राष्ट्रपति ने इस अवधारणा को सिरे से खारिज किया है और कहा कि मंजूर प्राप्त की यह अवधारणा संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध है, और ये राष्ट्रपति तथा राज्यपाल की शक्तियों को सीमित करती है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया है कि जब संविधान स्पष्ट रूप से राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर निर्णय लेने का विवेक देता है तो फिर सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप कैसे सकता है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 के उपयोग पर भी सवाल : राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की अनुच्छेद 142 के तहत की गई व्याख्या और शक्तियों के प्रयोग पर भी सवाल उठाए हैं। इस अनुच्छेद के तहत शीर्ष न्यायालय को पूर्ण न्याय करने का अधिकार मिलता है। राष्ट्रपति ने कहा है कि जहां संविधान या कानून में स्पष्ट व्यवस्था मौजूद है, वहां धारा 142 का प्रयोग संवैधानिक असंतुलन पैदा कर सकता है। नए प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई के कार्यभार संभालने के दिन ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट को यह विशेष संदर्भ पत्र भेजा है। संविधान के जानकार कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को फैसले पर पुनर्विचार के लिए कहना केंद्र-राज्य और न्यायपालिका के बीच टकराव का कारण बन सकता है। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को विशेष संदर्भ पत्र भेजते हुए राज्यपालों की शक्ति सीमित करने वाले उसके हालिया फैसले पर पुनर्विचार करने की भी अपेक्षा की है। अपने इस फैसले में शीर्ष कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल राज्य विधानसभा से पारित बिल को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। शीर्ष कोर्ट का यह आदेश राज्यों की उन शिकायतों के बाद आया था, जिसमें कई विधेयक महीनों तक राज्यपालों के पास अटके रहे।
उपराष्ट्रपति ने भी शीर्ष कोर्ट पर उठाए थे सवाल : भारत के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीश धनखड़ ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर सवाल उठाते हुए ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक दिया है। इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया। वहीं दूसरी ओर देश का विपक्ष इसे सुप्रीम कोर्ट की सत्ता को चुनौती मानते हुए उस आदेश के साथ खड़ा दिखाई दिया। विपक्ष को इसमें वक्फ कानून के पक्ष में दबाव बनाने की रणनीति दिखी तो सत्ता पक्ष में इसे राष्ट्रपति के अधिकारों को चुनौती से जोड़ दिया। जहां तक उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का सवाल है तो उन्हें कानून और संविधान का जानकार माना जाता है। कानून और संविधान के मामले में उनकी जानकारी सिर्फ राष्ट्रीय स्तर तक की ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। ऐसे में अगर उन्होंने कोई बात उठाई है तो उसमें वजन तो होगा ही। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तो यहां तक कहा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमाएं लांघ रहा है। और अब वह राष्ट्रपति को निर्देश देने लगा है। उनका कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट के लिए बम हो गया है। यह एक ऐसा हथियार हो गया है, जिसे वह जब चाहे और जहां चाहे इस्तेमाल कर रहा है। राष्ट्रपति के प्रति मर्यादा नाम की चीज ही नहीं रही। अब ये स्थिति आ गई है सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को भी निर्देश देने लगा है, और यह चिंता का विषय है। झारखंड से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे भी खुलकर उपराष्ट्रपति धनकड़ के साथ विपक्ष के खिलाफ बैटिंग में जुटे रहे। निशिकांत दुबे ने भी सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले पर सवाल उठाया और कहा कि यह उचित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट अब अपनी सीमाएं लांघने लगा है। उन्होंने कहा कि अगर सब कुछ सुप्रीम कोर्ट ही तय करेगा तो विधायिका को बंद कर देना चाहिए, उसमें ताला लगा देना चाहिए। राष्ट्रपति पद की एक गरिमा होती है और सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश राष्ट्रपति की गरिमा के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का काम कानून की व्याख्या करना है। किंतु वह व्याख्या छोड़ दूसरे कामों में लगा हुआ है, जो उचित नहीं है। मामला इतना बढ़ा कि निशिकांत दुबे के बयानों को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना बताते हुए याचिका भी दाखिल कर दी गई। वह याचिका अटार्शी जनरल की अनुमति की प्रतीक्षा में लंबित है। इसके अलावा केंद्रीय मंत्री किरेन रिजीजू ने भी कहा कि देश में कार्यपालिका, न्याय पालिका, विधायिका का काम निर्धारित है। और सबकी अपनी-अपनी सीमाएं हैं। सबको अपना काम करना चाहिए। अगर न्यायपालिका विधायिका के काम में हस्तक्षेप करेंगी तो दिक्कत होगी। रिजीजू के इस बयान को विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में चल रहे वक्फ कानून से जुड़े मुकदमे से जोड़ दिया और कहा कि ये दबाव बनाने की राजनीति है, सरकार न्यायपालिका को धमका रही है। इसके बाद विपक्ष के तमाम नेताओं जैसे कपिल सिब्बल, जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी, असदुद्दीन ओवैसी के अलावा समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस के अलावा काफी लोग विरोध में आ गए। किंतु इस मामले में अभी तक न तो राष्ट्रपति की ओर से और न ही सुप्रीम कोर्ट की ओर से ही कोई रिएक्शन आया था। अब जाकर यह मामला फिर चर्चा में आया है जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के नये प्रधान न्यायाधीश को संदर्भ पत्र भेजकर अपने इस फैसले पर पुनर्विचार की अपेक्षा की है।
इस मामले में देश के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय का कहना है कि सरकार एनडीए की है पर सुप्रीम कोर्ट पर इंडिया गठबंधन का राज है। ऐसे में देश में संसद में बनाए क़ानून से नहीं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश से चलने की रवायत हो गई है। और मोदी सरकार में दम नहीं है कि वह सुप्रीम कोर्ट को उस की हैसियत बता सके। ऐसे में इस सरकार से कोई उम्मीद नहीं है।
सांसद निशिकांत दुबे पर अवमानना की तलवार : झारखंड से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे सुप्रीम कोर्ट पर टिप्पणी करके फंस गए लगते हैं। अब उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई का खतरा है। सुप्रीम कोर्ट में तीन वकीलों द्वारा उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई करने के लिए याचिका दाखिल की गई है। मामला अटॉर्नी जनरल पर आकर टिका है। अगर वह मामला चलाने की अनुमति दे देते हैं तो सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करेगा। और यदि वे दोषी पाए गए तो उनको 6 महीने कैद और ₹2000 तक जुर्माना हो सकता है। इधर भाजपा ने उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा है कि निशिकांत दुबे का बयान उनका निजी विचार है, और पार्टी उससे इत्तेफाक नहीं रखती। निशिकांत दुबे कीइ टिप्पणी के कुछ अंश आपत्तिजनक माने जा रहे हैं। उन्होंने कहा था कि देश में सांप्रदायिक विवाद पैदा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट और प्रधान न्यायाधीश की नीतियां जिम्मेदार हैं। वे संसद द्वारा पारित कानून की समीक्षा करने लगे हैं, जबकि उनका काम कानून की व्याख्या करना है। इसी के बाद से कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष उनके पीछे पड़ गया।
विवाद की जड़ तमिलनाडु सरकार के विधेयक : बीते 8 अप्रैल 2025 को एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 में दी गई शक्तियों प्रयोग करते हुए तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा 10 बिलों को मंजूरी देने से इनकार करने को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने सर्वसम्मति से माना कि राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 बिलों को रोकना गलत था। पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की शक्तियों को भी स्पष्ट किया और अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल कर कहा कि जो बिल स्वीकृति के लिए लंबित और राष्ट्रपति के लिए आरक्षित थे, उन्हें स्वीकृत माना जाएगा। शुरू में जस्टिस पारदीवाला ने लिखा कि एक बार जब राज्य विधानमंडल कोई विधेयक पारित कर देता है, तो उसे राज्यपाल के समक्ष विचार के लिए अनिवार्य रूप से रखा जाना चाहिए। विधेयक प्राप्त होने पर राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत तीन विकल्पों में से केवल एक चुन सकते हैं। इनमें स्वीकृति प्रदान करना, स्वीकृति रोकना या विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखना। कोर्ट ने कहा कि ये विकल्प परस्पर अनन्य हैं। पीठ ने इस मामले में समय-सीमा भी निर्धारित की जिसके भीतर राज्यपाल और राष्ट्रपति को उनके समक्ष रखे गए बिलों पर अपने निर्णय बताने होंगे। कोर्ट ने राज्यपाल के कार्यों की न्यायिक समीक्षा के अपने दायरे का विस्तार भी किया। कोर्ट ने इसमें राज्य सरकारों को अदालत का रुख करने और समय सीमा का पालन न करने पर परमादेश रिट की मांग करने के लिए भी सक्षम बनाया। परमादेश की मांग वह याचिका है जिसके तहत कोर्ट किसी सरकारी अधिकारी को कर्तव्य का निर्वहन करने का निर्देश देने का अधिकार देती है।
अनुच्छेद 200 के अनुसार यदि राज्यपाल स्वीकृति रोक लेता है, तो अनुच्छेद 200 का पहला प्रावधान लागू होता है। इसके लिए राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजना होता है। विधान मंडल राज्यपाल के सुझावों को स्वीकार कर सकता है या नहीं भी कर सकता है। जब विधेयक दूसरे दौर में वापस आता है, तो फिर राज्यपाल को स्वीकृति देनी ही होती है, वह उसे फिर से रोक नहीं सकता। यदि राज्यपाल को लगता है कि विधेयक शक्तियों का हनन करता है, तो वह अनुच्छेद 200 के दूसरे प्रावधान के तहत इसे राष्ट्रपति के लिए आरक्षित कर सकता है। तब राष्ट्रपति अनुच्छेद 201 के तहत उस बिल को स्वीकृति देंगे या रोक लेंगे। वर्तमान मामले में, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने तर्क दिया था कि राज्यपाल बिल को वापस भेजे बिना मंजूरी रोक सकते हैं। और यह ‘पूर्ण वीटो’ के बराबर होगा। इस प्रकार भी बिल आगे की कार्रवाई बिना समाप्त हो जाएगा। शीर्ष कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना और परमादेश जारी कर दिया। इसी पर राष्ट्रपति ने संदर्भ पत्र भेजकर स्थिति स्पष्ट करने की अपेक्षा की है।
अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक