जाड़े में नहाना उतना मुश्किल काम नहीं है, जितनी नहाने की हिम्मत जुटाना। एक हफ्ते से हम जुटा रहे हैं लेकिन रजाई के बाहर पैर निकालते ही वह बिखर जाती है। पिछले हफ्ते हमारी मैरिज एनिवर्सरी थी… उस दिन पत्नी और परिवार के दबाव में आकर नहाना पड़ गया। शायद मौसम की ठंड कम पड़ रही थी इसलिए हमारे स्नान से ही सबके सीने में विधिवत ठंडक पड़ी। काश, मई – जून की गर्मी में, आदरणीय गुलेरी जी के शब्दों में, कुड़माई की होती तो आज रजाई में यूं रुसवा ना होना पड़ता।
एक पुरानी पोस्ट में हमने कहा था – पता नहीं अपने देश में नहाने पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है। माना कि दुनिया का तीन चौथाई हिस्सा पानी है और ये देश भी तीन तरफ से पानी से घिरा हुआ है… लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि नहा ही लिया जाए। कितने ही उपयोग हैं पानी के… चाय बनाइए, दारू में मिलाइए, जल संस्थानों में भिजवाइए मगर अफसोस कि हमारे यहां शादी का मतलब बच्चे और पानी का मतलब सिर्फ नहाना समझा जाता है। ये उस ज़माने की बातें हैं… जब आदमी के पास कोई काम नहीं होता था… वह नहाता था और बच्चे पैदा करता था। लेकिन आज कितने काम हैं…!
किसी और को क्या कहें… उपरोक्त दलीलों का हमारे पर्सनल परिवार पर ही कोई असर नहीं पड़ा। इस मामले में बचपन से ही हमारा चैन छीन लिया गया। दस साल की उम्र तक हम खूब मल – मलकर नहाते रहे… तब जाकर यह गलतफहमी टूटी कि साबुन लगाने से कोई गोरा नहीं होता। फिर केवल साबुन नहीं, सम्पूर्ण स्नान सिस्टम के प्रति हमें वितृष्णा हो गई। उसी झटके में हिमालय निकल गए होते तो शायद बच जाते। लेकिन अभी तो और कष्ट सहना कुंडली में लिखा था। मां का साफ अल्टीमेटम होता था कि खाना तभी मिलेगा, जब नहा लोगे।
बचपन में हमारे घर में बाथरूम नहीं था। खुले आंगन में ही नहाना पड़ता था। इसलिए बचने की कोई गुंजाइश नहीं थी। बाद में बाथरूम बन जाने के बाद चेहरा और सिर के बाल भिगोकर हमने नहाने की नई शैली का आविष्कार किया। उस दौरान हमने लिखना – पढ़ना शुरू नहीं किया था लेकिन दृढ़ निश्चय कर लिया था कि बड़े होकर एक किताब लिखेंगे, जिसका नाम होगा – ‘ बिना नहाए, नहाए दिखने के 101 तरीके ‘। इस तरह घुट – घुटकर नहाते हुए हमने अपना बचपन बिताया।
सोचा था कि बड़े होकर अपने सारे अरमान पूरे करेंगे और जी भरकर नहीं नहाएंगे। लेकिन, भगवान ने शायद हमारी किस्मत कुएं में बैठकर लिखी और हैंडपंप का फुल स्टॉप लगा दिया। बड़े होकर नौकरी लगी और हमें शादी को प्राप्त करवा दिया गया। मां ने अपना चाबुक मुंह दिखाई में बहू को दे दिया। वह भी पता नहीं कौन सी सहस्त्रधारा का वरदान लेकर आई कि हमें नहलाए बिना मांग में सिंदूर ही नहीं लगाती।
आजकल जाड़ा शबाब पर है। रजाई में ही संसार के सारे सुख भी हैं और मोक्ष भी। जीवन का यह दर्शन उसकी समझ में नहीं आता, उल्टे रोज़ सवेरे से उसका स्नान राग शुरू हो जाता है। 34 साल नौकरी के चक्कर में नहाना पड़ा। सोचा था रिटायर होने के बाद इस इल्लत से निजात मिलेगी मगर नहीं। आज का दिन किसी तरह बचा लिया है… फिर जनवरी में मकर संक्रांति है… बकरे की मां भले खैर मना ले मगर हम नहीं मना पाएंगे। यह तय है। हो सके तो हमारे लिए दुआ कीजिए… किसी तरह ये जाड़ा निकल जाए।
कमल किशोर सक्सेना