थम नहीं रहा बैंकिंग फ्राड, बैंक कर्मी भी शामिल

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थम नहीं रहा बैंकिंग फ्राड, बैंक कर्मी भी शामिल…… सरकार की तमाम कोशिशों के होते हुए भी भारतीय बैंकिंग उद्योग में धोखाधड़ी का सिलसिला थम नहीं रहा है। बल्कि ऐसे मामले बढ़े ही हैं। स्थिति कुछ ऐसी है कि चालू वित्तीय वर्ष 2022-23 की पहली छमाही यानी 2022अप्रैल से लेकर सितंबर तक की अवधि में बैंकिंग धोखाधड़ी के मामलों की संख्या में 33 फीसद का इज़ाफा होना खतरे का एलार्म है। इस अवधि में 5406 मामलों में 19485 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी सामने आई, इसके ठीक एक वर्ष पहले यानी 2020-21की समान अवधि में 4069 मामलों में 36316 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी पकड़ में आई थी। यह समाचार बैंकिंग उद्योग और इसके नियामक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से एकत्रित सामग्री के विश्लेषण पर आधारित है।

वित्तीय वर्ष 2021-22 में कुल 60389 करोड़ रुपए की रकम की धोखाधड़ी की गई थी और यह 9102 मामलों के जरिए हुई। इसके पूर्व वर्ष 2020-21में तो 7358 मामलों मे 1.37 लाख करोड़ से भी ज्यादा की बैंक रकम पर धोखड़ियों ने हाथ साफ किए। विश्लेषण से यह सच भी सामने आया कि इन कारनामों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने समग्र बैंकिंग उद्योग में अपनी हिस्सेदारी को 2020-21 में 59.4 फीसद से और बढ़ाकर 2021-22 में 66.7 फ़ीसद के उच्चतमस्तर पर अपना परचम लहरा ही दिया, अपने बड़प्पन को मेंटेन रखा।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अव्वल रहे हैं, इस रिकॉर्ड पर पिछले तीन वित्तीय वर्षों से लगातार इन्हीं बैंकों का कब्जा कायम है। वित्तीय वर्ष 2017-18 में हुए हुए कुल 5916 मामलों में कुल समाहित 41167 करोड़ रुपए में से 38260 करोड़ रुपए की रकम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की थी। 2018-19 के वित्तीय वर्ष में कुल मामले 6801 खुल पाए और इनमें कुल धनराशि 71543 करोड़ रुपए थी, इसमें से 63283 करोड़ की रकम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में हुई धोखाधड़ी में समाहित थी।

आंकड़े बोलते हैं 2019-20 में 84545 मामलों में कुल 185772 करोड़ रुपए में से 148400 करोड़ रुपए की अर्थात 77 फीसद की हिस्सेदारी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की रही, इस स्तर ने तो धोखाधड़ी के पिछले सारे रिकॉर्डो को ध्वस्त कर डाला। सबसे ज्यादा धोखाधड़ी के मामले ऋणों को लेकर दर्ज किए गए। जानकारों का कहना है कि अगर बैंक अधिकारी पूरी सजगता के साथ ऋण प्रस्तावों और उनसे संबंधित दस्तावेजों की बारीकी से पड़ताल करने के बाद ऋण स्वीकृत करें तो काफी हद तक धोखाधड़ी को रोका जा सकता है। स्थिति इसके विपरीत है।

एक और भयानक सच सामने आया कि कई बार बैंक कर्मी ही धोखाधड़ी में शामिल रहते रहे हैं। धोखाधड़ी में बैंक कर्मियों की भागीदारी तो बेहद ख़तरनाक है इसे तो ‘घर का चोर’ कहें या ‘अमानत में खयानत’। वित्तीय वर्ष 2019-20 को ही लीजिए 2668 मामलों में बैंक कर्मियों की मिलीभगत से 1783 करोड़ की धोखाधड़ी सामने आई। तमाशा यह भी है कि दोषी पाए गए बैंक कर्मियों के अपराध, उनकी आईडी और पद के बारे में सार्वजनिक रूप से कोई भी खुलासा नहीं किया जाता, क्यों?

विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले तीन वित्तीय वर्षों में कुल 97262 मामलों में 2 लाख 98482 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी बैंक और बैंकिंग नियामक के रहते हुए हो गई? यही नही 2019-20 में तो हद हो गई। इतनी मशीनरी के होते हुए निजी क्षेत्र के बैंको ने तो सार्वजनिक क्षेत्र के अपने समकक्षों को भी पछाड दिया और धोखाधड़ी के मामलो की संख्या में 500 प्रतिशत की अप्रत्याशित बढ़ोतरी समूचे बैंकिंग क्षेत्र और इसके नियामकीय -पर्यवेक्षण तंत्र की असलियत खोल कर रख दी।

वित्तीय वर्ष 2020-21 के पहले तीन महीनों अप्रैल से जून के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बारह बैंकों में 19964 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी के 2867 मामले सामने आए। इसमें से 70 प्रतिशत मामले अकेले सबसे बड़े भारतीय स्टेट बैंक में हुए, इनमें 2325 करोड़ की रकम है। लेकिन बैंक ऑफ इंडिया ने सिर्फ 47 मामलों में 5124.87 करोड़ रुपए की धनराशि दर्ज कर स्टेट बैंक को भी बहुत पीछे छोड़ नंबर एक बन गया। केनरा बैंक पिछली तिमाही में 33 मामलों में 3885 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी के रिकॉर्ड के साथ रनर बना। बैंक ऑफ बड़ौदा में 60 मामले खुले जिनमें 2842.94 करोड़ रु. की धोखाधड़ी पाई गई।

बैंकिंग क्षेत्र के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार रिजर्व बैंक बैंक धोखाधड़ी के मामलों का पता लगाने और इनकी निगरानी में सुधार के लिए विभिन्न डाटाबेस और सूचना तंत्र की इंटरलाकिग कर रहा है, इसके लिए बैंको में 2015 में लागू शुरुआती चेतावनी संकेत (ईडब्ल्यूएस) प्रक्रिया (मैकेनिज्म) को उन्नत करने में लगा है। दो बिंदुओं को सामने रखना जरूरी है और सामयिक भी। रिजर्व बैंक ने 2019-20 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ईडब्ल्यूएस के लचर क्रियान्वयन का दोष बैंकों पर मढ़ कर स्वयं को साफ ठहराया और यह भी कहा कि बैंकों की आडिट रिपोर्ट अनिश्चित और अनिर्णायक होती है तथा बैंकों के इंटर्नल आडिट में ईडब्ल्यूएस नहीं खोजे जा सकते।

प्रश्न है कि इस पर शीघ्रता से कदम क्यों नहीं उठाया गया? दूसरा बिंदु – रिजर्व बैंक के ही पूर्व डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने, जो एक उच्चस्तरीय स्थायी समिति के अध्यक्ष थे, अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि रिजर्व बैंक में पर्यवेक्षी दक्षता का अभाव है। कभी भी सार्वजनिक रूप से यह खुलासा नहीं किया जाता है कि सामने आए धोखाधड़ी के मामलों में कौन-कौन व्यक्ति दोषी ठहराये गए, उन पर कानूनी कार्रवाई कब कितनी की गई और रकम की भरपाई कितनी, कब और कैसे हुई। क्योंकि ये धन जमाकर्ताओं का होता है। करदाताओं से वसूल की गई धनराशि ही सरकारी पूंजी के रूप में बैंकों में लगी होती है।

प्रणतेश बाजपेयी