हिंदू और हिन्दू धर्म के लोगो की जागरूकता

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विश्व में संभवतः भारत एक ऐसा देश है, जिसने अपनी मूल संस्कृति के अलावा भी अनेको संस्कृतियों को अपने यहाँ समाहित किया है पर इसका प्रभाव भी मूल संस्कृति पर पड़ा है। भारत में मंदिर की स्थापना कब से हुई ये एक विवाद का विषय हो सकता है पर सिकंदर (३२३ इसवी पूर्व) के आक्रमण के बाद से भारत में मंदिर दिखाई देने लगे।

मंदिर को उपासना का केंद्र मान कर स्थापित किया जाता रहा और धीरे धीरे धर्म की सबसे महत्वपूर्ण इकाई के रूप में भारत में मंदिरों का प्रसार होता चल गया। सनातन तो बाद में फारसी की त्रुटि (स को ह और च को स कहने की परम्परा) के करण हिन्दू कहलाने लगा। अपनी श्रद्धा को भगवान् के समक्ष रखने में अपनी सम्पत्ति का कुछ हिस्सा जिसमे जमीन, सोना, चांदी और धन था, को भगवान् को समर्पित करने लगा और यही समर्पित धन मंदिर के भगवान् का होने के कारण धीरे धीरे एक अपार सम्पत्ति के रूप में इकठ्ठा होने लगी और इसने भी विदेशी अक्रान्ताओ को भारत में आने के लिए प्रेरित किया। जिसमे महमूद गजनवी के 17 बार आक्रमण और सोम नाथ मंदिर की लूट प्रमुख है।

इतिहास भरा पड़ा है कि भारत में अनगिनत मंदिर तोड़े गए और लूटे गए और ये सिलसिला भारत की स्वतंत्रता तक चलता रहा। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 2395000 मंदिर थे। जिनमे से हजारो में अकूत पैसा था। 8वीं शताब्दी में त्रावणकोर के राजाओं ने पद्मनाम मंदिर को बनाया था।

सबसे अहम बात ये है कि इसका ज़िक्र 9वीं शताब्दी के ग्रंथों में भी आता है। 1750 में महाराज मार्तंड वर्मा ने खुद को ‘पद्मनाभ दास’ बताया, जिसका मतलब ‘प्रभु का दास’ होता है। इसके बाद शाही परिवार ने खुद को भगवान पद्मनाभ को समर्पित कर दिया। इस वजह से त्रावणकोर के राजाओं ने अपनी दौलत पद्मनाभ मंदिर को सौंप दिया। केरल के तिरुवनन्तपुरम में स्थित पद्मनाभस्वामी मंदिर काफ़ी प्रसिद्ध है। यह मंदिर पूरी तरह से भगवान विष्णु को समर्पित है। यह भारत के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में से एक है।

देश-विदेश के कई श्रद्धालु इस मंदिर में आते हैं। इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की विशाल मूर्ति विराजमान है, शेषनाग पर शयन मुद्रा में भगवान विराजमान है। यह मंदिर काफ़ी रहस्यों से भरा है। यह विश्व का सबसे अमीर मंदिर है। इस मंदिर में करीब 1,32,000 करोड़ की मूल्यवान संपत्ति है, जो स्विटज़रलैंड की संपत्ति के बराबर है। ऐसे ही मंदिरों से भरा पड़ा है भारत देश। स्वतंत्रता के बाद सबसे पहले सरकार ने जो काम किया वो था देश के मंदिरों के लिए मिलने वाले धन के लिए कानून बनाना। और इसी लिए आज ये जानना जरुरी है कि इस कानून से देश के मंदिरों और और उनको मानने वालो को कितना फायदा हुआ।

1951 का धार्मिक और चैरिटेबल एंडोवमेंट अधिनियम : राज्य सरकारों और राजनेताओं को हजारों हिंदू मंदिरों को अपने अधिकार में लेने और उन्हें और उनके गुणों पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखने की अनुमति देता है। दावा किया जाता है कि वे मंदिर की संपत्तियों और परिसंपत्तियों को बेच सकते हैं और किसी भी तरह से पैसे का उपयोग कर सकते हैं। किसी भी मंदिर प्राधिकरण द्वारा एक भी आरोप नहीं इस कानून पर लगाया गया है और न ही किसी हिन्दू समूह और व्यक्ति ने इस तरफ गंभीरता से कार्य किया है कि देश में जब मंदिर सिर्फ और सिर्फ हिन्दू से ही संदर्भित किये जाते है और संविधान का अनुच्छेद 14 समनाता का अधिकार देता है तो जैसे अन्य धार्मिक स्थानों को सरकार सारी सुविधाए और अनुदान दे रही है। वैसे ही मंदिरों के लिए भी होना चाहिए और ये तथ्य भी सोचा जाना चाहिए कि क्या भारत में आज भी सम्पूर्ण देश की जनता का भरण पोषण या कोई अन्य विकास का कार्य मंदिर की संपदा ही कर रही है और यदि किसी भी प्रतिशत में ऐसा है तो उसके लिए एक खुली स्वीकारोक्ति होनी चाहिए। क्योकि देश के लोग जानते ही नहीं है कि देश में मंदिरों का पैसा कहाँ है और किसी काम में लगाया जा रहा है।

भारत में धार्मिक उन्माद को लेकर कोई भी व्यक्ति खुल का बोलने से कतराता है और इसी लिए अमेरिका के एक व्यक्ति ने पहले देश के मंदिरों का अध्ययन किया और फिर वह लौट कर जाने के बाद भारत के इस अनोखे कानून के बारे में लिखता है। जिसके तथ्य शोध और विमर्श का विषय हो सकते है। एक विदेशी लेखक स्टीफन नैप ने एक पुस्तक (अपराध के खिलाफ भारत और प्राचीन वैदिक परंपरा की रक्षा करने की आवश्यकता) संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रकाशित किया है जो आज देश के सामने उनकी भाषा हिंदी में रखी जानी चाहिए। ताकि देश का सामान्य जनमानस इससे परिचित हो सके।

सदियों से सैकड़ों मंदिरों को भक्त शासकों द्वारा भारत में बनाया गया है और भक्तों द्वारा दिए गए दान (अन्य) लोगों के लाभ के लिए उपयोग किए गए हैं। यदि वर्तमान में, एकत्रित धन का दुरुपयोग किया गया है (और उस शब्द को परिभाषित करने की आवश्यकता है क्योकि ये पैसे के दुरूपयोग को ज्यादा परिभाषित करता है क्योकि मंदिर का पैसा सिर्फ मंदिर और हिन्दू के लिए प्रयोग किया जा रहा हो ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है ऐसे में हिन्दू के अर्थ में ये सिर्फ दुरूपयोग ही है), भक्तों के विरोध में है। इस अधिनियम के प्रभाव के बारे में कुछ उदहारण से ज्यादा स्पष्टता लायी जा सकती है।

उदाहरण के लिए, ऐसा लगता है कि एक मंदिर सशक्तिकरण अधिनियम के तहत आंध्र प्रदेश में लगभग 43,000 मंदिर सरकारी नियंत्रण में आये हैं और इन मंदिरों के राजस्व का केवल 18 प्रतिशत मंदिर प्रयोजनों के लिए वापस कर दिया गया है, शेष 82 प्रतिशत सरकार अपने प्रोजेक्ट एवं अन्य कार्य के लिए प्रयोग कर रही है।

जिस तिरुमाला की यात्रा के लिए एक हिन्दू हर परेशानी सहन कर के दर्शन के लिए पहुँचता है वो भी इस अधिनियम से अछूता नहीं है। विश्व प्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मंदिर भी इस अधिनियम के आगे विवश है। नेप के अनुसार, मंदिर हर साल 3,100 करोड़ रुपये से अधिक एकत्र करता है और राज्य सरकार ने इस आरोप से इनकार नहीं किया है कि इनमें से 85 प्रतिशत राज्य निकाय में स्थानांतरित कर दिया गया है। जिसमे से ज्यादातर धन का उपयोग उन कार्यो के लिए किया जाता है, जो हिन्दू या हिंदी धर्म से बिलकुल सम्बंधित नहीं है।

सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भारत में भक्त इसी लिए चढवा चढाते है कि सरकार उसका सबसे बाद स्वयं वह चढ़वा हासिल करके अपने अनुसार प्रयोग कर सके। क्या यही कारण है कि भक्त मंदिरों को अपनी भेंट करते हैं?

यदि एक अन्य प्रकरण में हम कर्णाटक के मंदिरों की स्थिति का मूल्याँकन करे तो ऐसा लगता है कि कर्नाटक में, लगभग दो लाख मंदिरों से 79 करोड़ रुपये एकत्र किए गए थे और उससे, मंदिरों को उनके रखरखाव के लिए सात करोड़ रुपये मिले, यहाँ ये भी विचारणीय है कि भारत में सभी धर्मो से इतर एक धर्म निरपेक्ष व्यवस्था है और सरकार दूसरे धर्मो की सहायता करने में लगी है। मुस्लिम मदरसा और हज सब्सिडी को 59 करोड़ रुपये और चर्चों को 13 करोड़ रुपये दिए गए। इस अर्थ में सरकार का बहुत उदार प्रतीत होती है पर क्या हिन्दू मंदिर के पैसे को कभी हिन्दुओ के उत्थान के लिए भी होना चाहिए यही एक विमर्श का विषय है।

इस तरह के कार्य से क्या होगा इस पर इस वजह से, नैप लिखते हैं, दो लाख मंदिरों में से 25 प्रतिशत या कर्नाटक में लगभग 50,000 मंदिर संसाधनों की कमी के लिए बंद हो जाएंगे, और उन्होंने आगे कहा: सरकार ऐसा इसलिए कर पा रही है क्योकि भारत से देश में मंदिर के भक्त अपने ही धन के लिए खड़े ही नहीं होना चाहते है और इसी कारण इस अधिनियम को बेरोक टोक जारी रखा गया है।

विविधता वाले देश भारत में धन धान्य से परिपूर्ण मंदिर संभवतः दक्षिण भारत में ही ज्यादा है। इसी लिए नेप केरल को संदर्भित करता है, जहां वह कहते हैं, कि गुरुवायूर मंदिर से धन से 45 हिंदू मंदिरों में सुधार से इनकार करके उस मंदिर के पैसे को अन्य सरकारी परियोजनाओं में बदल दिया जाता है। अयप्पा मंदिर से संबंधित भूमि पर चर्च ने धीरे धीरे अपने पैर पसारने शुरू कर दिए है और चर्च के अतिक्रमण को शबरीमला के पास हजारों एकड़ में चलने वाले वन भूमि के विशाल क्षेत्रों पर आसानी से देखा जा सकता है पर केरल की सरकार की सोच हिंदूवादी न होने के कारण मंदिर संक्रमण के काल से गुजर रहे है हैं।

आरोप लगाया जाता है कि केरल की कम्युनिस्ट राज्य सरकार त्रावणकोर और कोचीन स्वायत्त देवस्ववम बोर्ड (टीसीडीबी) को तोड़ने और 1,800 हिंदू मंदिरों के सीमित स्वतंत्र प्राधिकरण को लेने के लिए एक अध्यादेश पारित करना चाहता है। यदि लेखक जो कहता है वह सच है, यहां तक कि महाराष्ट्र सरकार राज्य में करीब 450,000 मंदिर लेना चाहती है जो राज्यों को दिवालिया परिस्थितियों को सही करने के लिए भारी मात्रा में राजस्व प्रदान करेगी।

उपरिलिखित तथ्यों से इतर नेप कहते हैं कि उड़ीसा में, राज्य सरकार जगन्नाथ मंदिर से 70,000 एकड़ की एंडॉवमेंट भूमि बेचने का इरादा रखती है, जिसकी आय मंदिर संपत्तियों के अपने स्वयं के प्रबंधन के द्वारा लाई गई एक बड़ी वित्तीय संकट को हल करेगी।

नेप कहते हैं: ऐसी घटनाएं इतनी लगातार होती रहती है कि यदि दूसरे किसी भी धर्म का व्यक्ति उसके धार्मिक स्थान को कोई भी क्षति हो जाए तो सेकंड में पूरा विश्व जान लेता है कि भारत में क्या हो रहा है और भारत में तथाकथित लोगो का सांस लेना मुश्किल हो जाता है पर हिन्दुओ के ही मूल देश भारत में चुपचाप हिदुओं के साथ क्या हो रहा है ये कोई जान ही नहीं पाता है और ऐसा इसलिए होता है क्योकि भारतीय मीडिया, विशेष रूप से अंग्रेजी टेलीविजन और प्रेस अक्सर उनके दृष्टिकोण हिंदू विरोधी होते हैं, और इस प्रकार, वो ऐसी हिन्दू खबरों को अधिक कवरेज देने के इच्छुक नहीं हैं, और निश्चित रूप से कोई सहानुभूति नहीं है कुछ भी जो हिंदू समुदाय को प्रभावित कर सकता है।

नेप स्पष्ट रूप से रिकॉर्ड पर है। यदि उनके द्वारा उत्पादित तथ्य गलत हैं, तो सरकार उसका कार्यवाही कर सकती है। यह काफी संभव है कि कुछ व्यक्तियों ने आकर्षक कमाई से निपटने के लिए मंदिर स्थापित किए हों। लेकिन, निश्चित रूप से, सरकारों का कोई भी व्यवसाय नहीं है?, सरकार निश्चित रूप से मंदिर समितियों को देखने के लिए स्थानीय समितियों की नियुक्ति कर सकती है ताकि मंदिरों के धन को जनता के लिए काफी अच्छी तरह से उपयोग की जा सके?

नैप कहते हैं: कहीं भी स्वतंत्र, लोकतांत्रिक दुनिया में धार्मिक संस्थानों का प्रबंधन, गठबंधन और सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है, इस प्रकार देश के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता को अस्वीकार कर दिया जाता है। और भारत में ऐसा किया जाना निश्चित ही एक आश्चर्य जनक तथ्य है। लेकिन यह भारत में हो रहा है। सरकारी अधिकारियों ने हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण लिया है क्योंकि वे उनमें धन पाते है, वे हिंदुओं की उदासीनता को पहचानते हैं, वे असीमित धैर्य और हिंदुओं की सहिष्णुता से अवगत हैं, वे (सरकार) यह भी जानते हैं कि हिन्दू ज्यादातर अपने कामो में ही व्यस्त रहते है।

नेप एक बात बहुत ही अच्छी कहते है कि ज्यादातर हिन्दू चुपचाप बैठ का अपनी संस्कृति को मरता हुआ देख रहे है। जबकि उन्हें अपने विचारों को ज़ोरदार और स्पष्ट व्यक्त करने की आवश्यकता है। नेप स्वयं नहीं जानते कि उनको (हिन्दू) को ऐसा करना चाहिए कि नहीं पर यदि वो ऐसा करते है तो, वे कम्युनिस्टों के रूप में शापित हो जायेंगे (ये महत्वपूर्ण है कि नेप कम्युनिस्ट को विरोध करने वाले एक योधा मनाता है पर हिन्दू के लिए ऐसी धारणा वो नहीं रखता है)। लेकिन, ऐसा समय आ गया है जब सभी तथ्यों पर काम करने के लिए कहा जाए ताकि जनता जान सके कि उसके पीछे क्या हो रहा है।

नेप का मानना है कि पीटर (हिन्दू) को लूट कर पॉल (अन्य धर्म के लोग) को भुगतान करना धर्मनिरपेक्षता नहीं है। और किसी भी नाम के तहत मंदिर लूटपाट के लिए नहीं हैं। और ऐसा करने वाला गाज़ी काफी लम्बे समय पहले मर चुका है।

आज इस लेख को आपके लिए हिंदी में अपनी भाषा में लिखने का सिर्फ एक ही मतलब है कि इस देश में जो भी विधि है विधान है उसके लिए जागृत होना जरुरी है| सोशल मीडिया पर सिर्फ राजनीति के दृष्टिकोण से सब देखने से अपना ही धर्म ही प्रभावित हो सकता है और किसी भी धर्म के लोगो को अपनी बात रखने उसके लिए शांति पूर्वक समूह बनाने के लिए भारतीय संविधान ही अधिकृत करता है और ये हमारा मूल अधिकार है। कितने आश्चर्य की बात है कि एक विदेशी नेप भारत आकर भारत के मूल धर्म हिन्दू और उसके धार्मिक स्थान मंदिरों के पीछे के तथ्यों को समझ गया पर हम सिर्फ आपस में लड़ते हुए आज भी धर्म से ज्यादा व्यक्तिगत सोच, सुख उन्नति के लिए जी रहे है पर इन सब में धर्म और संस्कृति किस विनाश की तरफ बढ़ रही है उसके लिए सोचते ही नहीं है। नेप ही नहीं मैं भी सरकार से प्रार्थना करता हूँ कि यदि नेप की बाते गलत है तो उसका खंडन किया जाए और यदि सही है तो उसकी इन बातो को गंभीरता से लेते हुए देश के हिन्दू धर्म के मानने वालो को एक पारदर्शी व्यवस्था के अंतर्गत बताया जाये कि हमारे धन जो मंदिरों में चढ़ाये उसका उसी धर्म के उत्थान के लिए कितना उपयोग किया जाता है। उस धर्म के गरीब लोगो के लिए उसका क्या उपयोग होता है.. शिक्षा के लिए क्या उपयोग होता है और जो मंदिर उपेक्षित पड़े है उनके निर्माण में इस अधिनियम के अंतर्गत जो पैसा मिलता है, क्या उपयोग होता है। क्योकि देश के हर हिन्दू को भी संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है और हमको इसको समझना होगा।

डॉ आलोक चान्टिया (यह लेखक के निजी विचार हैं)