होली के रंग कोरोना के संग

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1988

एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था का चरमराता हुआ वह स्वरूप है, जिसके दबाव को कम करने की सरकार पर आवश्यकता है, जो बाजार के खुले रहने पर ही संभव है। दूसरी तरफ लोगों के जीवन प्रत्याशा को उसी रूप में स्थापित करना है। जिस रूप में प्रत्येक मानव की अब 70 साल तक जीने की आशा की जाती है लेकिन इन दोनों के बीच में मानव के सर्वश्रेष्ठ होने के अभिमान को तोड़ता हुआ।

कोरोना वायरस सिर्फ 60 नैनोमीटर की आकृति में मानव के जीवन को पेड़ के सूखे हुए पत्ते की तरह हिला कर रखने में सक्षम हो रहा है। वैसे तो विषाणु जीवित और मृत्यु के बीच की कड़ी होती है और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इसके केंद्र में रिवर्स ट्रांसक्रिप्ट्से नाम का एक एंजाइम पाया जाता है जो अनुवांशिक पदार्थ आर एन ए को डीएनए में बदल देता है। जिसके माध्यम से यह विषाणु बड़े आसानी से मानव शरीर में पहुंचकर फैल जाता है।

ऐसा भी नहीं है कि कोई अब पहली बार हो रहा है कि किसी विषाणु ने मानव को उसके छोटे होने का एहसास कराया है। अब तक पृथ्वी पर दो हजार से ज्यादा विशाल को कि अपनी एक कॉलोनी हो गई है। जिसमें सभी पृथ्वी पर उपस्थित हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि अब उनके लिए वैक्सीन बन गई है लेकिन एचआईवी विषाणु की तरह ही कोरोना वायरस अपने अनुवांशिक कूट को बदलने में सक्षम है।

इसीलिए दोनों ही विषाणु हो कि कोई अंतिम दवा नहीं बन पाई है। जैसे एचआईवी के लिए एआरटी ट्रीटमेंट होता है। वैसे ही कोरोना विषाणू के लिए भी वैक्सीन की खोज कर ली गई है लेकिन इस वैक्सीन के बनने के बाद विषाणु ने अपने बहरूपिया स्वरूप के अंतर्गत अपने नए नए वेरिएंट जारी कर दिए हैं। जिसने मानव जीवन को तिनके की तरह साबित कर दिया है। वह बात अलग है कि कभी होली के रंग में टेसू के फूलों के रस के पानी से लोग नहा कर लोग अपने शरीर को प्रतिरोधक क्षमता वाला बना लेते थे।

लेकिन आधुनिकता की दौड़ में मानव द्वारा अब टेसू का फूल न जाने कहां गायब कर दिया गया है। अब तो सिर्फ एक रंग से होली खेलने का दौर चल रहा है.. कीचड़ में लोगों को डुबोने का दौर चल रहा है.. ऐसे में आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करने में भी मानव पीछे नहीं हट रहा है। कल क्या होगा.. किसने जाना है.. इस बात को एक दर्शन की तरह जीता हुआ वर्तमान मनुष्य होली खेलने के लिए जितना आतुर दिखाई देता है.. उसमें ना दो गज की दूरी का ध्यान रख रहा है.. और ना ही वह मास्क लगाना चाहता है।

इसके लिए वहां अप्पू ने मनुष्य होने की प्रमाणिकता को स्थापित करने के लिए यह तर्क देता है कि यदि वास्तव में कोई विषाणु है तो फिर वह वहां पर क्यों नहीं है जहां पर चुनाव हो रहे हैं यहां पर नेता लोग रैली कर रहे हैं जहां पर किसान आंदोलन कर रहा है और जिस रास्ते सभी जाएं वही रास्ता है वाली कहावत को सही मानते हुए हर व्यक्ति अपनी जान को हथेली पर लेकर घरों से बाहर निकल रहा है।

ऐसे में सरकार को प्रजातंत्र की स्थापना करने में और अपने को लोक कल्याणकारी सरकार के रूप में स्थापित करने के लिए बहुत पैसा विज्ञापन पर और लोगों के कथानक पर लगाना पड़ रहा है ताकि लोग इस बात पर विश्वास कर सकें कि विषाणु एक सच्चाई है लेकिन जिन्होंने इक्का-दुक्का ऐसे प्रकरण सुन लिए हैं।

जिसमें वैक्सीन लगवाने के बाद या तो कोई परेशानी हुई है या फिर किसी की मृत्यु हो गई है तो वहां पर शंकराचार्य और मंडन मिश्र की तरह अपने को विद्वानों की श्रेणी में खड़ा करता हुआ मानो या शास्त्रार्थ कर रहा है कि फिर यह लोग क्यों मरे और वैक्सीन पर भरोसा कैसे किया जाए। ऐसी स्थिति में सरकार के सामने सिर्फ यही विकल्प शेष है कि वह भी यह मान ले की होई है वही जो राम रचि राखा और लोगों को लोगों के हाल पर छोड़ दे.. शायद होली के रंग में कोरोना का संग अब लोग स्वीकार अलग तरह से कर रहे हैं। आखिर उन्हें कहना जो है बुरा न मानो होली है कोरोना ने इस बार एक नई बिसात खोली है।

डॉ आलोक चांटिया