महाशिवरात्रि मानव जागृति का पर्व

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महाशिवरात्रि मानव जागृति का पर्व… महाशिवरात्रि तीन शब्दों महा-शिव-रात्रि से मिलकर बना है। जिसके अर्थ निम्नवत् हैं:-
 महा का तात्पर्य श्रेष्ठों मे श्रेष्ठ।
 शिव का अर्थ है आदियोगी और जो नहीं है अर्थात शून्यता।
 रात्रि का अर्थ होता है अंधकार।
भगवान शिव की इच्छा और ऊर्जा अंश से सृष्टि का आरम्भ हुआ। इसलिए इनको ‘देवों के देव अर्थात् ‘महादेव’ कहा जाता है, सृष्टि के संतुलन एवं संचालन हेतु ज्ञान की उत्पत्ति इन्ही के द्वारा हुई है। इसीलिए भगवान शिव को प्रथम आदिगुरू भी संबोधित किया जाता है। भगवान शिव ने ही संसार में योग को सिखाया इसलिए इनको ‘योगी शिव’ भी कहा जाता है।

आदियोगी तथा ‘जो नहीं है अर्थात् शून्य’ से तात्पर्य उस योगी से है। जिसने प्रत्यक्षदर्शी शरीर से हटकर आत्मा के अस्तित्व एवं विस्तार के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली हो। महाशिवरात्रि की पावन रात सांसारिक मनुष्यों को इसी योग अथवा शूल्य का अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्रदत्त करती है। जब बात अंधकार अर्थात् शून्यता की हो तो यहाँ यह समझना होगा कि यदि किसी मनुष्य को अंधकार या प्रकाश में से किसी एक का चयन करने को कहें तो वह निश्चित ही प्रथम विकल्प के रूप में प्रकाश का ही चयन करेगा जबकि प्रकाश मन की बहुत छोटी सी घटना है। प्रकाश शाश्वत नहीं है, वह सीमित संभावना है तथा उसका अस्तित्व समाप्त हो सकता है, यहाँ तक कि एक मनुष्य भी प्रकाश को रोककर परछाया से अंधेरा कायम कर सकता है जबकि इसके विपरीत अंधकार सर्वव्यापी है।

संसार में अंधकार को अज्ञानता और डर के रूप में चित्रण किया जाता रहा है जबकि अंधकार ही एक ऐसा तत्व है जो हर जगह व्याप्त है और जो सर्वव्यापी होता है, वही ईश्वरीय ‘दिव्य शक्ति’ है। दिव्य शक्ति अंश ही सर्वव्यापी हो सकता है, उसको किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती है। इसीलिए जब हम शिव को समझते है या कहते है तो हमारा संकेत अस्तित्व की उस असीम रिक्तता अर्थात् शून्यता की ओर होता है। जिसकी गोद में सारी सृष्टि का सृजन होता है, रिक्तता की इसी गोद को भगवान शिव कहा जाता है।

पूरे ब्रह्माण्ड में जो भी आप देख रहे है सूर्य, चन्द्र, तारामण्डल, ग्रह और पंचमहाभूत इन सभी की उत्पत्ति का आधार शून्य है तथा शून्य के संतुलन से ही एक ही ब्रह्माण्ड में एक दूसरे से अलग रहकर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते है। कदाचित यह संभव है कि कोई ग्रह सागर को समा सकता हो परन्तु यह सम्भव नहीं है कि वह शून्य को समा सके अर्थात् ‘शून्य’ ही ‘मूल’ है ‘जो नहीं है’ और सभी जगह है। यहाँ तक कि यदि मनुष्य के शरीर के अन्दर भी शून्यता अर्थात् दो नसों-नाड़ियो के मध्य शून्य रूपी रिक्त स्थान न हो तो शरीर का संचालन सम्भव नहीं है। इसीलिए अब संसार के वैज्ञानिको ने भी यह मान लिया है कि सभी कुछ शून्य से ही उत्पन्न हुआ और शून्य में ही विलीन हो जाता है।

प्रत्येक चंद्र मास अमावस्या के एक दिन पहले का दिवस अर्थात चैदहवां दिवस शिवरात्रि के रूप में जाना जाता है। परन्तु हिन्दू पंचाग के अनुसार फाल्गुन मास जो वर्ष का अन्तिम महीना होता है, की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। महाशिवरात्रि माह का सबसे अंधकारमय दिवस होता है। इस अंधकारमय दिवस को उत्सव के रूप में मनाने का आशय ही ‘अंधकार का उत्सव’ मनाने से है।

आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महाशिवरात्रि की रात्रि बहुत ही विशिष्ट होती है क्योंकि इस रात्रि में ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस तरह होता है कि मनुष्य की ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की तरफ जाने लगती है अर्थात् इस पावन रात्रि को प्रकृति स्वयं मनुष्य को आध्यात्मिक शिखर पर ले जाने में उसकी सहायता करती है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण और योग क्रिया के सिद्धान्तों के तहत मानव शरीर में ऊर्जा का बहाव नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए क्योंकि इसी प्रक्रिया से मनुष्य को अपनी सत्यता एवं वास्तविकता का बोध होता है अर्थात् परम् तत्व से मिलन का रास्ता भी यही होता है।

महाशिवरात्रि को प्रकृति स्वयं अपनी व्यवस्थाओं से मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने का रास्ता प्रदत्त करती है। इसीलिए इस पावन रात्रि में मनुष्य को योग एवं ध्यान मुद्रा में रीढ़ की हड्डी को सीधा कर बैठकर रात्रि जागरण करने की बातें कही गयी हैं।

वैसे वेदों और पुराणों में इस पावन दिवस में हुई कई दैवीय घटनाओं एवं मान्यताओं का जिक्र किया गया है कि इस पावन दिवस की मध्य रात्रि को ही ‘परम्पिता परमेश्वर शिव’ पहली बार ‘अग्नि ज्योर्तिलिग’ के रूप में प्रकट हुए थे जिसका न आदि था और न ही अंत। इसी पावन दिवस पर ‘जगतमाता आदिशक्ति’ से परम् पिता परमेश्वर शिव का शुभ-विवाह हुआ था तथा इसी पावन दिवस पर ‘भगवान शिव’ कैलाश पर्वत के साथ एक पर्वत की भांति एकात्म, स्थिर व निश्चल हो गये थे। इसीलिए ‘भगवान शिव’ के भक्त इस पावन रात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते है।

हो सकता है कि भगवान शिव का नामकरण एवं स्वरूप भले ही वेदों-पुराणों तथा तत्समय के योगिक ज्ञान वाले ऋषियों-मुनियों ने काल्पनिक रूप से किया हो परन्तु सत्यता तो यही है कि जिसके अंश एवं उसके द्वारा निर्मित विधान से स्वतः प्रकृति का सृजन, संतुलन एवं संचालन हो रहा है वही अंश ‘शिव’ हैं तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शक्तिशाली, सर्वश्रेष्ठ एवं देवो के देव ‘महादेव’ के रूप में पूजनीय एवं वन्दनीय है। इसलिये प्रकृति द्वारा प्रदत्त ‘महाशिव रात्रि’ जैसे पावन अवसर का सदुपयोग कर भगवान शिव में ध्यान लगाकर उनका नमन एवं अभिनन्दन करना सभी के लिये श्रेयस्कर होगा। उक्त भावनात्मक विषय तमाम लेखों और पुस्तकों का अध्ययन कर संक्षिप्त लेख के रूप में सादर प्रस्तुत है। यदि इस विषय में आपकी कोई राय अथवा सुझाव हो तो कृपया हमारे ई-मेल पर अवश्य अपने विचार प्रस्तुत करें।
जय परम्पिता शिव-जय माँ आदिशक्ति।

एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’