अखिलेश को विलेन बनाने वाला इको सिस्टम सक्रिय

अखिलेश को विलेन बनाने वाला इको सिस्टम सक्रिय सपा सुप्रीमो की प्रतिक्रिया देने में जल्दबाजी से विरोधियों को मिला हथियार न कथावाचकों का जाति छिपाना सही था और न ही उनको अपमानित करना पिछले साल देवरिया कांड में निष्पक्ष नेता की भूमिका में नज़र आए थे अखिलेश दोनों ही पक्ष हिंदू समाज की एकजुटता के अभियान में बन रहे हैं बाधक

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लखनऊ। कुछ तो सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव की बयानबाजी में जल्दबाजी की आदत और कुछ उनको ब्राह्मण और सनातन विरोधी बनाने में लगा इको सिस्टम, दोनों का ही असर है कि सपा अध्यक्ष इस मामले में सफाई देते फिर रहे हैं। जबकि अखिलेश यादव के पुराने इतिहास पर गौर करें तो वे ब्राह्मण समाज के समर्थक भी दिखे हैं। चाहे वह पिछले साल देवरिया जिले में हुए यादव-ब्राह्मण के कथित खूनी संघर्ष में ब्राह्मणों के आंसू पोछना हो, चाहे माता प्रसाद पाण्डेय को यूपी में नेता प्रतिपक्ष बनाना हो या फिर ब्राह्मणों के सर्वमान्य नेता रहे हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी को संकट के समय राजनीतिक संबल देना हो, हर बार अखिलेश ने सदाशयता का परिचय दिया है।‌ लेकिन सपा मुखिया की कुछ नासमझी भरी जल्दबाजी में की गई बयानबाजियों ने उनके सारे सकारात्मक कामों पर पानी फेरने का भी काम किया है, और उनकी राजनीतिक साख पर बट्टा लगाया है। और इसय तो एक इको सिस्टम उन पर सनातन विरोधी विशेषकर ब्राह्मण विरोधी का टैग लगाने की कोशिश में लगा है। शायद अखिलेश यादव के पास अभी सधे हुए सलाहकारों की कमी है। और इस चक्कर में उनको कठघरे में खड़ा होना पड़ रहा है।

इटावा जिले में छद्मवेशी यादव कथाबाचकों के अपमान के बाद जो विमर्श निकलकर आया है उससे तो जातीय सेनाओं में संघर्ष की पटकथा तैयार होने लगी है। अहीर रेजिमेंट, नारायणी सेना और परशुराम सेना के चैतन्य सैनिक आमने-सामने आ गए हैं। वह तो भला हो प्रदेश सरकार का जिसने इस संघर्ष पर फिलहाल लगाम लगा दिया है, नही तो बवाल बड़ा हो सकता था। लेकिन अभी भी आग अंदर ही अंदर सुलग रही है। सोशल मीडिया दोनों ओर के जातीय सैनिकों की टिप्पणियों से भरी पड़ी है। पर वोट के सौदागरों को इससे कोई फर्क पड़ता, उन्हें तो वोट की राजनीति करनी है।

इटावा में कथावाचकों के अपमान के बाद सबसे पहले अखिलेश यादव ने अपमानित कथावाचकों का लखनऊ में एक समारोह सम्मानित कर दिया, बिना ये जाने-समझे की ग़लती किस पक्ष की है। इटावा के उस ब्राह्मण समाज की भी यही शिकायत है। उनका कहना है कि अखिलेश यादव ने जाति के चक्कर में बिना हमारा पक्ष जाने हमें दोषी करार दिया। और इस मामले में उनका आरोप सही भी लगता है, क्योंकि जल्दबाजी तो हुई है। उधर यादव कथावाचकों का इटावा में अपमान हुआ और इधर लखनऊ में सपा मुख्यालय में सम्मान भी हो गया। इसकी टाइमिंग पर सवाल उठाए जा रहे हैं। इससे यही संदेश गया कि अखिलेश ने इस मामले में जाति का पक्ष लिया है। सूत्रों का कहना है कि यहीं पर अखिलेश यादव ने यादव बिरादरी को खुश करने के चक्कर में ब्राह्मणों को नाराज कर दिया। अब चूंकि उन्होंने इरादतन उन कथावाचकों को लखनऊ बुलाकर सीधे सम्मानित कर दिया, इस कारण इसका मैसेज गलत चला गया। इसके बाद भाजपा ने तो नहीं लेकिन उसके अनुषांगिक सनातन धर्म के झंडा बरदारों ने ये कहना शुरू कर दिया कि अखिलेश यादव ने ब्राह्मणों का अपमान किया है।यद्यपि अखिलेश ने सम्मान समारोह में ये नहीं कहा था कि ब्राह्मणों से बदला लिया जाना चाहिए पर अखिलेश की जल्दबाजी गलत संदेश दे गयी।

अब अखिलेश यादव ब्राह्मण विरोधी हैं या नहीं, इसके लिए हमे एक और घटना के पोस्टमार्टम के लिए अतीत में जाना होगा। पिछले साल देवरिया जिले के फतेहपुर में एक घटना हुई थी, जिसे यादव-ब्राह्मण संघर्ष के रूप में प्रचारित किया गया था। जबकि संघर्ष की पृष्ठभूमि कुछ और ही थी। असल में यह मामला दो परिवारों की आपसी रंजिश के खूनी संघर्ष में तब्दील होने का था। इस खूनी संघर्ष में एक पक्ष से एक यादव और दूसरे पक्ष से पांच ब्राह्मणों की मौत हो गई। उस समय अखिलेश पहले राजनेता थे जो तमाम विरोधों के बाद भी देवरिया के उस गांव में गए, जहां नरसंहार हुआ था। और वे सबसे पहले उस ब्राह्मण परिवार के पास गए जिसके यहां पांच लोगों की हत्या हुई थी। अखिलेश उस परिवार की आर्थिक सहायता भी करना चाहते थे, लेकिन इस परिवार का कोई सदस्य घर पर मौजूद नहीं था। इस मामले में जानकारों का कहना है कि उस समय कथित सनातन प्रेमियों ने ब्राह्मणों के परिजनों को यह कहकर भड़काया और वहां से हटा दिया था कि मृतक प्रेमचंद यादव को आयुध लाइसेंस सपा सरकार में जारी हुआ था, ऐसे में अखिलेश यादव से मदद की उम्मीद नहीं है। फिर भी अखिलेश यादव ने वहां पहुंचकर अपने पिता स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव की समाजवादी सोच का परिचय तो दिया था। बताते हैं कि अखिलेश यादव के इस व्यवहार से ब्राह्मणों की एक बड़ी आबादी उनकी मुरीद भी हो गई।
वहीं से एक और बात छनकर आई। वह यह कि गोरक्षपीठ और गोरखपुर के हाता की दुश्मनी जग जाहिर है। आरोप है कि इस समय हाता के संरक्षक और ब्राह्मण समुदाय के बड़े नेता हरिशंकर तिवारी के निधन के बाद उनके पुत्र विनय शंकर तिवारी की प्रताड़ना में सरकारी मिशनरी जुट गई। ऐसे में अखिलेश यादव ने माता प्रसाद पाण्डेय को विपक्ष का नेता बनाकर तथा विनय शंकर तिवारी को संरक्षण प्रदान कर ब्राह्मण वर्ग का हिमायती होने का प्रमाण दिया है। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मण वोटो में सेंध लगाने के लिए ब्यूह रचना भी कर दी है। सूत्रों का कहना है कि ऐसे में इससे बौखलाए कुछ कथित सनातन प्रेमी ये प्रचारित में लगे हैं कि अखिलेश ब्राह्मण विरोधी हैं। और उनके पीडीए का मतलब ही ब्राह्मण विरोध है। हालांकि वे ऐसा करके सनातन की एकजुटता को चोट पहुंचा रहे हैं। वैसे यहां यह उल्लेखनीय है कि गोरखपुर और बस्ती मंडल के देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर, महराजगंज बस्ती, सिद्धार्थनगर और संतकबीरनगर के ब्राह्मण प्रारंभ से समाज के हर क्षेत्र में अपनी पहचान के साथ स्थापित हैं। देश के किसी कोने में सरयूपारीण ब्राह्मण मिलेंगे तो उनका मूल इन्ही जगहों से होगा। ये जहां भी रहते हैं, पभावी भूमिका में और समाज को प्रभावित करते हैं।

अब अगर हम इटावा की घटना का पोस्टमार्टम करें तो यह सामने आएगा कि यह पूरी तरह से यादवों और ब्राह्मणों को लड़ाने का कुचक्र है। गोरखपुर और बस्ती मंडल के बाद कानपुर, इटावा, कन्नौज, फर्रुखाबाद आदि आसपास के जिलों को कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की बड़ी आबादी के लिए जाना जाता है। और इटावा अखिलेश यादव की जन्म भूमि है, शायद इसीलिए ब्राह्मण-यादव विवाद की पटकथा के लिए इटावा को चुना गया। और मोहरा भी उस गांव को बनाया गया जिसमें सौ से ऊपर के घर ब्राह्मणों के हैं। अब आते हैं कथित छद्मवेशी यादव कथावाचकों पर। इस मामले में बड़ा सवाल यह है कि क्या वे पहली बार उस गांव में गये थे कथा कहने, नहीं। सूत्र बताते हैं कि वे इसके पहले भी गांव के मंदिर में कथा कहने तीन बार जा चुके थे। इसके अलावा उन कथावाचकों का घर कथा स्थल से मात्र बीस किलोमीटर की दूरी पर है। और उन दोनो की कुछ तो प्रसिद्धि रही होगी, तभी तो उन्हें कथा कहने के लिए बुलाया गया था। यानी उन कथावाचकों को अनजाने में नहीं बुलाया गया होगा। पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि झूठ बोलकर खुद को ब्राह्मण बताना सही है। लेकिन यह भी उचित नहीं है कि उनको मूत्र से पवित्र किया जाए।‌ खैर, उनके पास दो आधार कार्ड मिले, वह भी षडयंत्र का हिस्सा हो सकता है। लेकिन उनको सजा देने का अधिकार उस गांव के ब्राह्मण समाज को किसने दिया। यह तो गलत है। सवाल यह भी उठता है कि क्या कृष्ण की कथा यानी भागवत केवल ब्राह्मण ही कह सकता है, नहीं। और इस बात को सनातन धर्म के तमाम जिम्मेदार भी मानते हैं। वैसे भी सनातन के लोग कथावाचन का अधिकार किसी से कैसे छीन सकते हैं। इसके अलावा इस मामले में कथावाचकों को अपमानित करने का जो वीडीओ सामने आया है उसको बनाने वाले कौन हैं, सवाल यह भी उठता है। यानी इस मामले में कथावाचकों को सिर्फ दंड देना ही मकसद नहीं था, इसके जरिए जातीय जहर भी फैलाना था। ताकि हिन्दू एकजुटता की उठती लहर को बाधित किया जा सके। ऐसे में जब आरोपी ही सबूत प्रस्तुत करे तो उसे क्या माना जाएगा। यानी वह वीडियो जानबूझकर प्रसारित किया गया ताकि जातीय विवाद को हवा दी जा सके। इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य, जिस पर शायद किसी का ध्यान नहीं गया है, वह यह है कि गांव के उस मंदिर के पुजारी राम स्वरूप दास बवाल के बाद से फरार बताए जा रहे हैं। सूत्र यह भी बताते हैं कि पुजारी राम स्वरूप दास जालौन जिले के रहने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी प्रचारक के सहोदर हैं। और यह कनेक्शन भी इस गड़बड़ी का इशारा कर रहे हैं। ऐसे में इतने तथ्यों के बाद कैसे इसे मात्र एक अचानक हुई घटना माना जा सकता है।

अब लगे हाथ अखिलेश यादव के आजमगढ़ के नव निर्मित पीडीए भवन की भी चर्चा इसमें हो जाना जरूरी लगता है। उस भवन के गृह प्रवेश में कहा जा रहा था कि कोई ब्राह्मण उस भवन के गृह प्रवेश की पूजा कराने नही जायेगा। ये प्रचारित करने वाले भी कुछ कथित सनातन प्रेमी ब्राह्मण थे। लेकिन इसके बावजूद ब्राह्मणों का एक वर्ग वहां पूजा कराने गया। और जाना भी चाहिए, क्योंकि ब्राह्मण को किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ना चाहिए। उसे तो जो भी सम्मान से आमंत्रित करे, वहां जाना चाहिए। लेकिन सनातनी होने का दम भरने के बाद लालच प्रदर्शित कहां तक उचित है। खैर, अखिलेश यादव यहां भी बाजी मार ले गए। उन्होंने यहां भी सनातन और ब्राह्मण विरोधी होने के तमाम आरोपों को झूठा साबित कर न सिर्फ पूजा पाठ किया बल्कि ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें सम्मान देते हुए पूजा कराया। अब ऐसे में सपा सुप्रीमो को सनातन और ब्राह्मण विरोधी कहना कहां तक उचित है। यानी अखिलेश की नीयत पर सवाल उठाना तार्किक नहीं लगता है।

अखिलेश को अब अधिक सावधान रहना चाहिए : वैसे जहां तक सवाल अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी का है तो उनको बयान देते समय जरूर सावधान रहना होगा। इस मामले में उन्हें स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव की नीति अपनानी होगी जो घोषित तौर पर यादवों के नेता कहे जाते थे किंतु उनके सलाहकार हमैशा पढ़े-लिखे और होशियार ब्राह्मण-क्षत्रिय लोग ही हुआ करते थे। वे चाहे जनेश्वर मिश्र हों, बृजभूषण तिवारी हों, मोहन सिंह हों, अमर सिंह हों या वर्तमान नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पाण्डेय हों। साथ ही अखिलेश यादव को एक बात यह भी समझनी होगी कि ब्राह्मण को सिर्फ इज्जत चाहिए और उसे वह जहां भी मिलेगा, रहेगा। और इतिहास गवाह है कि यूपी में वही दल सत्ता में रहा है जिसके साथ ब्राह्मण समाज रहा है। चाहे कांग्रेस हो, सपा हो, बसपा हो या भाजपा, सारी सरकारों के निर्माता ब्राह्मण ही थे। फिलहाल ब्राह्मण विकल्प तलाश रहा है, क्योंकि वह भाजपा से फिलहाल पूर्ण संतुष्ट नहीं दिखाई दे रहा, लेकिन विकल्पहीनता में वहां पड़ा है। इसलिए अखिलेश यादव को ब्राह्मण समाज के लिए वह विकल्प बनना होगा। साथ ही अपने तुष्टिकरण वाले बयानों से थोड़ा बचना होगा, क्योंकि बयान अक्सर गहरी चोट दे जाते हैं। इसके अलावा ब्राह्मणों के बारे में बयान देते समय भी सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि ब्राह्मण के इगो से खेलने का मतलब होता है खेला हो जाना। जैसा कि बीते राज्यसभा के चुनावों में हुआ, जब उनके पुराने साथी और ऊंचाहार के विधायक मनोज पाण्डेय ने उनका साथ छोड़ दिया। आज अखिलेश यादव को मनोज पाण्डेय का जाना खल तो रहा ही होगा। वैसे एक बार को यह मान भी लें कि मनोज पाण्डेय के जाने से सपा को कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन उनका जाना ये एक नैरेटिव तो दे ही गया कि अखिलेश यादव को ब्राह्मण समाज की चिंता नहीं, इसीलिए सब उन्हें छोड़ कर जा रहे हैं। और राजनीति में नैरेटिव का बड़ा महत्व है।

अभयानंद शुक्ल/अशोक चौबे