विदेशी विश्वविद्यालयों केलिए बिछ रही ‘रेडकार्पेट’, भारत बनेगा ग्लोबल हब…… विश्व के प्राचीनतम अंतराष्ट्रीय शिक्षा केंद्र तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के गौरवशाली अतीत को संजोए भारतीय जमीन पर विदेशी विश्वविद्यालयों की अगवानी की तैयारी पूरी जोरदारी से चल रही है। उनके लिए भारत सरकार ‘रेड कार्पेट’ बिछाने की व्यवस्था में जुटी है, और वे हमारी दहलीज पर भारत सरकार के ग्रीन सिग्नल के बेसब्री से इंतजार में खड़े हैं। एक तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) उनके नियमन के लिए वैधानिक ढांचा गढ़ रहा है तो दूसरी ओर उनके वित्तीय इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक से शीघ्र ही राय-मशविरा किया जाएगा ताकि उच्च शिक्षा प्रणाली का अंतराष्ट्रीयकरण सुगमता पूर्वक किया जा सके।
सरकार ख्यातिलब्ध विदेशी संस्थानों को लाकर भारत को उच्च शिक्षा का ग्लोबल हब बनाने का ताना-बाना बुन रही है। अनुमान है कि आतुर विदेशी संस्थानों का प्रवेश चालू साल में शुरू भी हो जाएगा, दिशा निर्देश भी करीब करीब तैयार हैं, संबंधित क्षेत्रों से सुझाव लिए जा रहे हैं। याद दिलाते चलें कि 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ही उच्च वैश्विक रैंकिंग वाले विदेशी विश्वविद्यालयों-संस्थानों को भारत में अपने कैंपस स्थापित करने की अनुमति देने की संस्तुति की गई थी।
भारत सरकार विदेशी उच्च शिक्षा संस्थानों को कितना और किस तरह की रियायतें सुविधाएं उपलब्ध कराएगी इस पर निर्णय अंतिम स्टेज पर है। क्यों कि अमेरिका और यूरोप के नामी विश्वविद्यालयों से सुझाव पहले ही लिए जा चुके हैं। मंत्रालय के जिम्मेदार सूत्रों का कहना है कि विदेशी विश्वविद्यालय, उच्च शिक्षा संस्थान भारत में प्रवेश करने को आतुर हैं। उद्योग-व्यापार की भांति भारत का उच्च शिक्षा क्षेत्र भी विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए विस्तृत और बेहद आकर्षक बाजार है। उच्च शिक्षा के लिए हर साल विदेश जाने वाले भारतीय छात्र छात्राओं की संख्या लगातार बढ़ ही रही है। 2017में ४.५४ लाख 2018 में 5.18लाख और 2019 में 5.86लाख भारतीय छात्र-छात्राएं अध्ययन करने के लिए विदेश गए।
कोविड की वजह से 2020 में इनकी संख्या घटकर 2.59 लाख रह गई थी लेकिन वर्ष 2021में सुधरकर 4.44 लाख और 2022 में बढ़कर 7.5 लाख के स्तर पर पहुंच गई। इस तरह पिछले छः सालों में 30 लाख से भी ज्यादा छात्र -छात्राएं बाहर गए। भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2012 से लेकर 2022तक विदेशी शिक्षा प्राप्त करने के लिए 35 हजार करोड़ रुपए की मुद्रा खर्च की गई।
उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार उच्च शिक्षा के लिए हर साल औसतन 4 करोड़ से अधिक छात्र-छात्राएं संस्थानों (आईआईटी, वि.वि., आईआईएम आदि) में एनरोल होते हैं, इनमें से 70-75 प्रतिशत छात्र सरकारी संस्थानों में और 25-30प्रतिशत छात्र निजी क्षेत्र के संस्थानों में होते हैं। ये संख्या बहुत बड़ी है और इसी पर विदेशी संस्थानों की लार टपक रही है।
अब प्रश्न यह है कि ऊंची फीस लेने वाले विदेशी संस्थान भारत में पैर जमाए आईंआईटी, वि.वि.और आईआईएम जैसे संस्थानों से कैसे और कहां तक प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे। जैसे आई आई टी को लेते हैं- इन्हें सरकारी और निजी क्षेत्र दोनों से अच्छी खासी वित्तीय मदद मिलती है जिससे ये अपनी वास्तविक लागत की क्षतिपूर्ति करके कम फीस पर शिक्षा उपलब्ध कराते हैं।
मसलन आईआईटी मद्रास में सात हजार छात्र हैं, इसका वार्षिक खर्च 2020-21 में 1030 करोड़ रुपए से अधिक आया था, यह कोर प्रोग्रामों के लिए प्रति छात्र सालाना फीस दो लाख रुपए लेती है, अगर इसे सरकारी और निजी क्षेत्र से मदद नहीं मिले तो उस स्थिति में प्रति छात्र सालाना फीस चौदह लाख रुपए लेनी पड़ेगी तब कहीं यह अपनी सकल लागत निकाल पाएगी। निजी क्षेत्र में चाहे शिव नाडार यूनिवर्सिटी हो या आज़िम प्रेमजी यूनिवर्सिटी सभी का किसी न किसी फाउंडेशन, ट्रस्ट अथवा कार्पोरेट्स से वित्तपोषण होता है।
देश में उच्च शिक्षा संस्थानों- विश्वविद्यालयों में दो तरह के माॅडल बस अपनाए गए हैं जिनके आधार पर ये काम करते हैं – कम फीस लो प्रीमियम और ऊंची फीस हाई प्रीमियम। जैसे आईआईएम कोलकाता ने ऊंची फीस (31लाख रुपए) हाई प्रीमियम का माॅडल अपनाया हुआ है। वेल्लूर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (वीआईटी) कम फीस (मेरिट कंसेशन पर सालाना फीस 4.95 लाख रुपए) है। यूजीसी से ली गई जानकारी के अनुसार देश में सरकारी वि.वि. की संख्या 459 और निजी क्षेत्र में 430 है। देखना है कि आने वाले विदेशी संस्थान भारतीय वि.वि.-संस्थानों का मुकाबला करने के लिए कैसी रणनीति के साथ भारतभूमि पर उतरते हैं।
प्रणतेश बाजपेयी