राहुल का रायबरेली आना सिर्फ पार्टी की इच्छा या कुछ और…

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कांग्रेस के बड़े नेता, पूर्व अध्यक्ष और फिलहाल वायनाड के सांसद राहुल गांधी के रायबरेली से चुनाव लड़ने के कई मायने हैं। इसके जरिए एक तो पार्टी यूपी में अपना आधार बचाने के लिए गांधी परिवार को यहां बनाए रखना चाहती है और दूसरी ओर अमेठी से मिली हार की भरपाई भी करना चाहती है। अमेठी से मिली हार ने राहुल की छवि को बहुत बट्टा लगाया है। इसीलिए उन्हें कांग्रेस की सर्वाधिक सुरक्षित सीट रायबरेली से लाया गया। ये सीट हमेशा कांग्रेस के सर्वोच्च नेता की रही है। और शायद यही मैसेज देने के लिए ही राहुल को रायबरेली के रण में उतारा गया है।

सोनिया गांधी हर हाल में राहुल गांधी को ही गांधी परिवार की लीगेसी का वारिस बनाना चाहती हैं। वे प्रियंका को हमेशा दूसरे पायदान पर रखती हैं। अन्यथा प्रियंका बहुत पहले ही चुनावी राजनीति में उतरकर अपनी ताकत आजमा चुकी होतीं। दूसरी तरफ भाजपा को भी राहुल का यूपी में बने रहना सूट करता है। क्योंकि राहुल गांधी अखिलेश यादव के मुकाबले कमजोर राजनीतिक शत्रु हैं। और जब तक राहुल गांधी की उपस्थिति यूपी में बनी रहेगी तब तक कांग्रेस और सपा में राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई भी बनी रहेगी। अभी जो गठबंधन है वह मोदी के भय का है, राजनीतिक इज्जत बचाने का है। ये स्थाई रूप कभी ले ही नहीं सकता। इन दोनों पार्टियों को आज नहीं तो कल अपनी राहें जुदा करनी ही हैं।‌ ऐसे में राहुल गांधी का उभार सपा को कमजोर करेगा और यह भाजपा के लिए फायदेमंद होगा। ऐसी स्थिति में यूपी की राजनीति में तीन ध्रुव होंगे तो भाजपा को चुनावी राजनीति में भी आसानी रहेगी।

इसे ऐसे भी समझने की जरूरत है। अमेठी और रायबरेली में भाजपा-कांग्रेस के उम्मीदवारों की सूची देखें तो एक चीज साफ सामने आती है। वो ये कि रायबरेली में राहुल के मुकाबले भाजपा का प्रत्याशी थोड़ा कमजोर है और अमेठी में स्मृति ईरानी के मुकाबले कांग्रेस का प्रत्याशी बहुत कमजोर है। ये कहीं न कहीं आपसी समझौते का सौदा लगता है। वरना रायबरेली या अमेठी से तो मल्लिकार्जुन खड़गे के भी नाम की चर्चा थी। यूपी कांग्रेस में और भी मजबूत प्रत्याशी हैं जो स्मृति ईरानी का मुकाबला कर सकते थे। तो फिर केएल शर्मा ही क्यों। स्मृति को हराना था तो कोई मजबूत प्रत्याशी उतारना था पर ऐसा नहीं हुआ। दूसरी तरफ रायबरेली से राहुल गांधी के मुकाबले दिनेश प्रताप सिंह। ये ठीक बात है कि दिनेश प्रताप सिंह मजबूत और जमीनी नेता हैं और उन्होंने सोनिया गांधी को पिछले चुनाव में कड़ी टक्कर दी थी। किंतु जब बात यूपी की सभी 80 सीटें जीतने की हो और गांधी परिवार को यूपी की राजनीति से बेदखल कर देने की हो तो दिनेश प्रताप सिंह उपयुक्त नहीं दिखाई देते।

इसलिए दोनों पार्टियों के प्रत्याशी चयन में कहीं न कहीं आपसी समझदारी दिखाई दे रही है। हां यह बात सच है कि अमेठी में राहुल गांधी का मुकाबला कर जिस प्रकार स्मृति ईरानी भाजपा में बड़ा कद पा गईं उसी तरह रायबरेली में राहुल का मुकाबला कर दिनेश प्रताप सिंह भी भाजपा में एक बड़ा मुकाम पा सकते हैं। वे चुनाव जीत गए तो बहुत बड़ा इनाम पाएंगे और अगर हार भी गए तो पार्टी में उनका राजनीतिक कद तो बढ़ ही जाएगा। क्योंकि रायबरेली में भी हार और जीत का अंतर बहुत कम रहने वाला है। पिछले दिनों जितनी चर्चा रायबरेली-अमेठी सीट की हुई उतनी शायद किसी की नहीं हुई होगी। और इतनी चर्चा के बाद दोनों सीटों पर जो स्थितियां हैं वे किसी भी राजनीतिक पंडित को हजम नहीं हो रही।

दूसरी तरफ गांधी परिवार में वर्चस्व को लेकर अंदरुनी जंग छिड़ी हुई है। खबर है कि प्रियंका गांधी ने अमेठी से लड़ने के लिए अपनी सहमति दे दी थी। वे इस बात से भी सहमत थीं कि अमेठी से उनके पति रॉबर्ट वाड्रा को ही उतार दिया जाए जैसा कि वे कई बार इच्छा जाहिर कर चुके हैं। किंतु सोनिया गांधी इसके लिए तैयार नहीं हुई। परिवार से जुड़े सूत्रों का कहना है कि सोनिया गांधी अभी प्रियंका को चुनावी राजनीति में नहीं उतारना चाहतीं। क्योंकि अगर गलती से भी प्रियंका जीत जातीं तो ये बात राहुल गांधी के लिए खतरे की घंटी होती, कांग्रेस में उनके नेतृत्व को चुनौती होती। और सोनिया गांधी ऐसा नहीं चाहती हैं।

सूत्रों का कहना है कि सोनिया गांधी प्रियंका के चुनावी राजनीति में आने की पूरी तरह विरोधी नहीं है किंतु वे प्रियंका को हमेशा सेकंड लाइनर बनाए रखना चाहती हैं। पारिवारिक सूत्रों ने संकेत दिया है कि यदि राहुल गांधी वायनाड और रायबरेली दोनों जगह से जीत गए तो वे वायनाड सीट छोड़ेंगे और वहां से प्रियंका गांधी को उपचुनाव लडाया जाएगा। यानी प्रियंका को राहुल की जूठन मिलेगी। इससे यह भी मैसेज जाएगा कि राहुल बड़े नेता हैं और प्रियंका उनकी फॉलोअर। वैसे भी राजनीति संभावनाओं का खेल है यहां कोई स्थाई शत्रु या मित्र नहीं होता। आगे इसका ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो समय ही तय करेगा।

अभयानंद शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ