ऊर्जा संतुलन का पर्व नवरात्रि

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प्रकृति ही जगद्माता दुर्गा का ऊर्जा स्वरूप है, मां दुर्गा की ऊर्जा शक्तियों के नौ स्वरूप ही नव दुर्गा के रूप में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। ब्रह्माण्ड की तरह मनुष्य के शरीर का संचालन एवं संतुलन भी माता दुर्गा की इन्हीं नौ शक्तियों से होता है।

नौ पावन रात्रियों में मनुष्य शरीर में माता के अलग-अलग रूपों के उपस्थित शक्ति अंश अर्थात् ऊर्जाचक्रों की उपासना एवं ऊर्जा चक्रों की जागृति करना ही नवरात्रि पर्व का पवित्र उद्देश्य है। इस प्रक्रिया को ही अन्र्तमुखी साधना कहा जाता है। इससे शरीर की ऊर्जा का प्रवाह ऊपर की ओर होने लगता है। जिससे मनुष्य को परम्तत्व परम्पिता परमेश्वर से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता है।

!! या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः !!

प्रथम रात्रि का स्वरूप माता शैलपुत्री का है। इनकी साधना से ऊर्जारूपी मूलाधार चक्र जागृत होता है। जिससे मनुष्य की लालसा एवं कामवासना संतुलित होती है।
द्वितीय रात्रि का स्वरूप माता ब्रह्मचारिणी का है। इनकी साधना से ऊर्जा रूपी स्वाधिष्ठान चक्र जागृत होता है। जिससे मनुष्य में प्रजनन, रचनात्मकता, खुशी और आध्यात्मिक रूप से उत्सुकता का संतुलन होता है।

तृतीय रात्रि का स्वरूप माता चन्द्रघंटा का है। इनकी साधना से ऊर्जारूपी मणिपुर चक्र जागृत होता है। इससे शारीरिक पाचनतंत्र सक्रिय होता है तथा मनुष्य को संतुष्टि का भाव तथा सम्बल प्राप्त होता है एवं इसके अतिरिक्त व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता का विकास होता है।

चतुर्थ रात्रि का स्वरूप माता कूष्मांडा का है। इनकी साधना से ऊर्जारूपी अनाहत चक्र जागृत होता है। जिससे मनुष्य में करूणा, सह्रदयता और प्रेम का वास होता है।
पांचवी रात्रि का स्वरूप स्कंदमाता का है। इनकी साधना से ऊर्जारूपी विशुद्ध चक्र जागृत होता है। जिससे मनुष्य का विकास होता है तथा उसमें परिपक्वता आती है। साथ ही मनुष्य की आत्माभिव्यक्ति, सम्प्रेषण, स्वतंत्रता एवं उन्मुक्त विचारों का संतुलन होता है।

छठवीं रात्रि का स्वरूप माता कात्यायनी का है। इनकी साधना से ऊर्जारूपी आज्ञा चक्र जागृत होता है। जिससे मान-सम्मान, अपराध बोध, तनाव और अज्ञात भय से मुक्ति होती है तथा मनुष्य को उसके शत्रुओं पर विजय हांसिल होती है।

सातवीं रात्रि का स्वरूप माता कालरात्रि का है। इनकी साधना से भानु चक्र अर्थात सूर्य (पिंगला) नाड़ी की शक्तियां जागृत होती है। जिससे शरीर का दायां हिस्सा संतुलित होता है तथा यह चक्र भविष्य, चेतना तथा कर्म का प्रतीक है। यही नाड़ी मनुष्य की इच्छापूर्ति के लिये कार्य करने की शक्ति प्रदत्त करती है।

आठवी रात्रि का स्वरूप माता महागौरी का है। जिनकी साधना से सोमचक्र अर्थात चंद्र (इड़ा) नाड़ी की शक्तियां जागृत होती है। जिससे शरीर का बायां हिस्सा संतुलित होता है तथा यह चक्र मनुष्य को आध्यात्मिक शक्तियां प्रदत्त करता है। इसके अतिरिक्त भूतकालीन स्मृतियों का सचेतन भी होता है। इस नाड़ी के सूक्ष्म गुण भावना, पवित्रता, अस्तित्व और आंनद, इच्छा और मांगल्य होते हैं।

नवीं रात्रि का स्वरूप माता सिद्विदात्री का है। इनकी साधना से सहस्त्रार चक्र की शक्तियां जागृत होती है। चंूकि यह चक्र सीधे ब्रह्माण्ड अर्थात परम्तत्व चेतन से जुड़ा होता है। जिसके कारण इस चक्र की जागृति से मनुष्य सीधे चेतन से जुड़ जाता है और व्यक्ति को आत्मानुभूति तथा ईश्वर की अनुभूति का एहसास होता है।

वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक कारण : समाज एवं सामाजिक मनुष्यों का जीवन संतुलित रहे, इसके लिए प्राचीन वैदिक काल में ऋषियों-मुनियों ने आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक शोध करके होली, दीपावली, हरतालिका तीज, महाशिवरात्रि तथा नवरात्रि जैसे पर्व मनाये जाने की परम्परा बनायी परन्तु पर्वो के पीछे के कारणों को बिना पूर्ण रूप से समझे मनुष्य ने पर्व मनाने की वास्तविक पद्वति से भटककर पर्वों को सामाजिक औपचारिक परम्परा के तौर मनाने की प्रक्रिया अपना ली।

सभी महत्वपूर्ण पर्वो को विशेष पद्वति के साथ रात्रि समय में साधना के साथ मनाने की विधा बतायी गयी है ताकि मनुष्य प्रकृति ऊर्जा तथा अपने शरीर की ऊर्जाओं के मध्य संतुलन स्थापित कर सके। इन पर्वो में दिन के स्थान पर रात्रि में साधना करने के पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि ‘अंधकार’ तत्व से ही ब्रह्माण्ड तथा उसके समस्त जीवों का सृजन और पोषण तथा संहार होता है। परन्तु किसी से भी अंधकार अथवा प्रकाश में से एक विकल्प को चयन करने के लिए कहा जाय तो वह प्रथम विकल्प प्रकाश को ही देगा जबकि सत्यता यह है कि प्रकाश में सीमितता है प्रकाश समयबद्ध एवं नश्वर है अर्थात प्रकाश सर्वव्यापी नहीं है, किन्तु अंधकार सर्वव्यापी तथा चिरंतन है तथा इसका कोई आदि-अंत नहीं है।

जो सर्वव्यापी है चिरंतन है और आदि-अंत से परे है। वही परम तत्व श्रेष्ठ तथा पूजनीय है। रात्रि के द्वितीय प्रहर अर्थात रात्रि 12 बजे के पश्चात सूर्योदय से पूर्व का समय जिसेे सतोगुणी समय अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त कहा जाता है, ही साधना का वास्तविक प्रहर होता है। क्योंकि दिन में प्रातः 8 बजे से सायं 4 बजे तक का समय रजोगुणी अर्थात् कर्म का समय होता है, में सूर्य की किरणों, सामाजिक ध्वनि तथा क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण से वायुमण्डल की ऊर्जा मनुष्य के शरीर के सीधे सम्पर्क में बाधक होती है। उदाहरणार्थ दिन में रेडियों स्टेशन में उतने साफ सिग्नल और आवाज स्पष्ट नहीं होती है। जितना कि स्पष्ट सिग्नल तथा आवाज रात्रि पहर में वह भी ब्रह्ममुहूर्त की बेला में होती है।

नवरात्रि पर्व दो ऋतुओं की संधि के समय होता है। जैसे मार्च में पड़ने वाला नवरात्रि पर्व के समय अर्थात चैत्र मास में सर्दी समाप्त होकर गर्मी का प्रभाव प्रारम्भ होता है। इस दौरान प्रकृति तथा ग्रहों की ऊर्जाओं में तमाम परिवर्तन होते हैं। जिसके कारण वातावरण में संक्रमण बढ़ता है तथा इन्हीं ऊर्जाओं का प्रभाव मनुष्य के मन और शरीर पर पड़ता है।

इसलिए संक्रमण से बचाव तथा शारीरिक ऊर्जा चक्रों के संतुलन के लिए नवरात्रि पर्व के माध्यम से नौ रात्रियों में मनुष्य व्रत रखकर शरीर और मन की शुद्धि करता है तथा शुद्ध एवं नियंत्रित मन से ब्रह्ममुहूर्त में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के प्रवाह से अपने को जोड़कर किसी शांत स्थल अथवा पूजा स्थल पर बैठकर अंतर्मुखी होकर ध्यान साधना करने से ऊर्जा शक्तियों का संतुलन स्थापित होता है और तमाम सिद्धियाँ तो प्राप्त होती ही है।

साथ ही मनुष्य के शरीर को आरोग्यता तथा उसको अपार आध्यात्मिक शक्तियां भी प्राप्त हो जाती है तथा नवरात्रि पर्व के नौ दिनों के दौरान, पूजा-पाठ, कपूर, धूपबत्ती जलाने के साथ ही हवन तथा घंटे घड़ियाल की ध्वनियों से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा से प्राकृतिक वातावरण का संक्रमण भी समाप्त होता है।

एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’