संस्कृत शब्द ‘नवरात्र, का शाब्दिक अर्थ है नौ रातें। नवरात्र के विषय में भगवान शिव ने बताया ‘शक्तिभि: संयुक्त नवरात्र तदुच्यते, एकेक देव-देवांश, नवधा परितिष्ठता’ अर्थात नवरात्र नौ शक्तियों से संयुक्त है। इसकी प्रतीक तिथि को एक-एक शक्ति के पूजन का विधान है। प्रकृति एवं शरीर में शक्ति को समझने से ही शक्ति की आराधना का महत्व समझ में आता है, इसलिए इस पर्व की महत्ता समझने के लिए सर्वप्रथम शक्ति को समझना आवश्यक है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किसी भी तत्व का होना आवश्यक होता है, जो तत्व इस गति के लिए जिम्मेदार होता है, वही शक्ति तत्व शक्ति होता है। जिसका वैज्ञानिक नाम ऊर्जा है। ऊर्जा ब्रह्माण्ड में हर जगह व्याप्त परन्तु वह निष्क्रिय स्थिति में वास करती है, निष्क्रिय स्वरूप में व्याप्त ऊर्जा को गतिमान बनाने के लिए चेतना अर्थात ज्ञान की आवश्यकता होती है। यहां मनुष्य की बात करें तो उसकी उत्पत्ति पुरुष रूपी चेतन तत्व एवं स्त्री रूपी प्रकृति के पंच तत्वों के मिलन से होती है। ब्रह्माण्ड में किसी भी तत्व वस्तु अथवा जीव का सृजन एवं संचालन इन्हीं पुरुष एवं प्रकृति रूपी ऊर्जा अंशों से होता है। चेतन तत्व के प्रारब्ध भोग के लिए मनुष्य के शरीर अथवा अर्थात देह का भी सृजन प्रकृति के पंच तत्वों अर्थात पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एवं आकाश के ऊर्जा अंश तथा पुरुष के चेतन तत्व अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की ऊर्जा मिलकर करते हैं।
इन दोनों तत्वों के मिलन से निर्मित देह के संचालन हेतु प्रकृति अपने पंच तत्वों एवं तीन गुणों अर्थात सत्, रज् एवं तम् नामक गुणों से युक्त ऊर्जा चक्रों का निर्माण शरीर के अंदर करती है तथा शरीर के इन ऊर्जा चक्रों को ‘प्रकृति’ ब्रह्मांड में व्याप्त पंच तत्व की ऊर्जा से सदैव उर्जित करती रहती है। जिसके आधार पर ही शरीर का संचालन अनवरत होता रहता है। शरीर अथवा ब्रहमाण्ड सृजीत प्रत्येक वस्तु में गति सभी पंच तत्वों अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश द्वारा एक-दूसरे के संतुलित सम्मिश्रण से होती है, परंतु ऋतु परिवर्तन से वातावरण में होने वाले बदलाव अथवा किसी अन्य कारणों से जब ये तत्व एक दूसरे के पूरक बनने के स्थान पर एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं तो ऐसी स्थिति में सृष्टि के वातावरण में असंतुलन की स्थितियां पैदा होती है।
उदाहरणार्थ- संसार में पृथ्वी तत्व और जल तत्व दोनों ही साथ रहते हैं। परंतु यदि किसी स्थान एवं समय में दोनों तत्वों में से पृथ्वी तत्व की अधिकता हुई तो वह जल का अस्तित्व अपने अंदर समाहित कर लेती है और यदि जल की अधिकता हुई तो पृथ्वी तत्व का अस्तित्व जल तत्व में समाहित हो जाता है। इसी प्रकार से यदि जल तत्व और अग्नि तत्व की बात करें तो यदि दोनों तत्वों में अग्नि तत्व की अधिकता हुई तो वह जल को वाष्प बनाकर उसका अस्तित्व समाप्त कर देता है। इसी प्रकार यदि जल तत्व की अधिकता हुई तो वह अग्नि का अस्तित्व समाप्त कर देता है।
चूंकि मनुष्य शरीर के संचालक ऊर्जा चक्रों का ऊर्जीकरण निरंतर बाहरी वातावरण में प्रवाहित ऊर्जा से होता रहता है। ऐसे में सूर्य की परिक्रमा के दौरान ऋतुओं के संधिकाल से जब प्रकृति में विशेष प्रकार के परिवर्तन एवं संक्रमण उत्पन्न होते हैं तो वातावरण में इन बदलावों से उत्पन्न ऊर्जा में हमारे शरीर की आंतरिक चेतना और शरीर की ऊर्जा चक्र प्रभावित होते हैं। जिसके परिणाम स्वरुप में गणित के पंच तत्वों से निर्मित वात पित्त और कफ का संतुलन होता है। जिससे शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी प्रभावित होती है। शरीर एवं मन पर पड़ने वाले प्रभाव से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने हेतु 4 ऋतुओं के संधिकाल पर ही 4 नवरात्र पर्व मनाने की परंपरा है। जिसमें दो नवरात्र गुप्त नवरात्र होते हैं। जिनको साधु-सन्यासी आदि मनाते हैं। परंतु पृथ्वी लोक पर गृहस्थ जीवन में दो ही नवरात्र पर्व बड़े ही धूमधाम से चैत्र मास एवं अश्विन मास की प्रतिपदा से नवमी के मध्य मनाने की परंपरा प्रत्यक्ष है। इन 9 दिन एवं रात्रि में व्रत एवं साधना से शरीर के ऊर्जा चक्रों को संतुलित करके शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली को शुद्ध किया जाता है।
मनुष्य शरीर में सात चक्र और दो नाड़ियां होती हैं। इन सभी में आदिशक्ति माता दुर्गा रूपी शक्ति के ऊर्जा अंशों का वास होता है तथा इस पर्व के दौरान साधना से प्रतिदिन एक-एक चक्र को उर्जित कर उनमें सक्रियता एवं संतुलन स्थापित किया जाता है। जिससे उस ऊर्जा क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले शरीर के अंगों के संचालन हेतु ऊर्जा का संतुलन होने के साथ ही उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि होती है।
नवरात्र शब्द अर्थात नौ विशेष रात्रियां। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक माना जाता है। इसलिए यहां नवरात्र का तात्पर्य यह है कि नौ रात्रियों में अपने शरीर में उपलब्ध ऊर्जा की पूजा-अर्चना एवं स्वच्छ मन से व्रत आदि रखकर ऊर्जा की सिद्धि प्राप्त करना, मनुष्य का शरीर ब्रह्माण्ड के प्रतिकृति स्वरूप में निर्मित है, जिसके संचालन हेतु ऊर्जा चक्र, जो शक्ति के केंद्र होते हैं, के जागृत एवं संतुलित होने पर ही शरीर का संचालन स्वस्थ रूप से हो पाता है। नवरात्र के 9 दिवसों में प्रथम 7 दिन शरीर में उपलब्ध सातों शक्ति चक्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए साधना की जाती है। जिससे यदि वे चक्र सुसुप्त अवस्था में हों अथवा कम सक्रिय हों तो उनमें साधना (साधना का अर्थ होता है कि मन नियंत्रित कर शांत एकाग्रचित्त अवस्था में बैठकर अपने शरीर की ऊर्जा को ब्रह्मांड की उर्जा से ऊर्जित करा देना) से सक्रियता व्याप्त हो जाए। प्रत्येक दिन निम्नानुसार क्रम में शरीर के ऊर्जा चक्रों को जागृत करने की साधना की जाती है।
* प्रथम दिवस में माता शैलपुत्री की ऊर्जा शक्ति अर्थात मूलाधार चक्र का शोधन।
* द्वितीय दिवस में माता ब्रह्मचारिणी की ऊर्जा शक्ति अर्थात स्वाधिष्ठान चक्र का शोधन।
* तृतीय दिवस में माता चंद्रघण्टा की ऊर्जा शक्ति अर्थात मणिपुर चक्र का शोधन।
* चतुर्थ दिवस में माता कुष्माण्डा देवी की ऊर्जा शक्ति अर्थात अनाहत चक्र का शोधन।
* पंचम दिवस में स्कंदमाता की ऊर्जा शक्ति अर्थात विशुद्ध चक्र का शोधन।
* छठे दिवस में माता कात्यायनी देवी की ऊर्जा शक्ति अर्थात अजना चक्र का शोधन।
* सप्तम दिवस माता काली की ऊर्जा शक्ति अर्थात सहस्रार चक्र का शोधन।
* आठवें दिन वाम नाड़ी में निहित माता महागौरी की ऊर्जा शक्ति की शोधन प्रक्रिया।
* नौवें दिन दायीं नाड़ी में निहित माता सिद्धिदात्री देवी की ऊर्जा शक्ति की शोधन प्रक्रिया।
चक्र संस्कृत का शब्द है। जिसका अर्थ होता है पहिया। मनुष्य शरीर में शक्ति जो प्राण रूप में पहिये की तरह घूमती है। प्राण-शक्ति के यही सात चक्र उनके निवास एवं संचार का केंद्र हैं। इनके सुसुप्तावस्था में शरीर निष्क्रिय एवं शांत रहता है और शरीर में भिन्न-भिन्न रोग व्याप्त हो जाते हैं तथा नवरात्र में इन चक्रों की शोधन प्रक्रिया से ना केवल ऋतुओं के बदलाव से वातावरण में उत्पन्न होने वाली नकारात्मक ऊर्जा रक्षण प्राप्त होता है, बल्कि एवं शरीर के भीतर की ऊर्जा शक्तियां सक्रिय होकर अपना कार्य ठीक से करने लगती हैं और इस प्रक्रिया से आरोग्यता प्राप्त होती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
चूंकि ऊर्जा अर्थात शक्ति जो किसी भी आविष्कार का माध्यम है। इसीलिए इसको संसार में मां का दर्जा दिया गया है तथा इन नौ विशेष रात्रियों में नौ देवियों अर्थात नौ प्रकार की ऊर्जा शक्तियों की उपासना का प्रावधान है। हर मनुष्य को आरोग्यता के साथ सफल जीवन यात्रा करने हेतु नवरात्र में माता आदिशक्ति की साधना एवं आराधना करके अपने अन्दर अन्तर्मुखता की शक्ति, समेटने की शक्ति, सहन करने की शक्ति, समाने की शक्ति, परखने की शक्ति, निर्णय लेने की शक्ति, सामना करने की शक्ति, सहयोग करने की शक्ति प्राप्त कर अपनी अष्ट शक्तियों का आह्वान करना चाहिए। जिससे जीवन में कमजोरी रूपी असुरों का विनाश हो और जीवन यात्रा का उद्देश्य सफल हो।
एस वी सिंह प्रहरी