हमेशा खाने-पीने की बात करना अच्छा नहीं होता इसलिए हमारी तरफ से आज खाने की नहीं, उसे ठिकाने लगाने की बात होगी। यह भी निहायत ज़रूरी और काबिल-ए-गौ़र मसला है। पहले हम अर्ज़ कर दें कि यह ऐसा विषय है, जिस पर लोग सामूहिक चर्चा करना पसंद नहीं करते। पता नहीं इसे क्यों नितांत निजी मामला बना दिया गया है… जबकि यह मनुष्य की नित्य एवं आवश्यक क्रियाओं में से एक है।
पुराने ज़माने के लोग खाने को रोज़ नियम से दो बार ठिकाने लगाने जाते थे… सुबह और शाम। आज की व्यस्त ज़िन्दगी में भी कुछ लोग ये नियम निभा रहे हैं और हर परीक्षा में खरे उतर रहे हैं। लेकिन, असली परीक्षा तब होती है जब खाना बार-बार ठिकाने लगने की ज़िद ठान लेता है। अर्थात, बेमौसम सावन की झड़ी लग जाती है। कई बार तो बेरहम पेट इतनी मोहलत भी नहीं देता कि आप इन टाइम ड्यूटी पर रिपोर्ट कर सकें। न तशरीफ रखते बनती है, न तसल्ली। दर-ए-राहतखाने तक पहुंचते-पहुंचते हौसला टूट जाता है और सारी तसल्ली लज्जा के सारे बांध तोड़ दरिया बनकर बह निकलती है।
अगर आप घर के बाहर कहीं रास्ते में हैं तब तो हालत सांप-छंछूदर वाली होती है। मतलब न उगलते बनता है न निगलते। ऐसे मुश्किल हालात में इंसान को बस एक ही दर नजर आता है… चाहे उसके सामने कितने ही दिलकश नज़ारे क्यों न हों। वह ऊपर वाले से मंज़िल तक सही-सलामत पहुंचा देने की दुआ मांगता है। आदमी पैदल हो या किसी वाहन पर… एक-एक कदम उठाना मुश्किल हो जाता है। पैर भारी हो जाना वाली कहावत ऐसे ही मौकों के लिए बनाई गई है… लोग उसका गलत इस्तेमाल करते हैं।
मियां चिरकीन का नाम तो आपने सुना ही होगा। शायर थे। उनका पूरा दीवान ऐसे ही नाज़ुक मसलों से भरा पड़ा है। एक बार उनके भोजन ने ठिकाने लगने से इंकार कर दिया। राहतखाने जाते थे। दिन में कई-कई बार। पहलू बदल-बदलकर घंटों बैठे रहते मगर मजाल है जो मुख्तलिफ़ महक की हवाओं के अलावा फिज़ाओं में कुछ घुलता। उस मौके पर उन्होंने शे’र कह डाला –
उमड़ता है घुमड़ता है निकलता क्यों नहीं
मैं कोई हौव्वा हूं जो तुझको खा जाऊंगा
चिरकीन से उनके घरवाले परेशान हो गए। वो घंटों राहतखाना घेरकर बैठे रहते थे। करना-धरना कुछ नहीं और पूरे घर को गैस चैंबर बनाकर रख दिया। उन्हें वार्निंग दे दी गई… खबरदार जो घर में गए…अब से जो करना हो बाहर ही जाकर करो। मरते क्या न करते चिरकीन… डिब्बा लेकर गोमती के किनारे जाने लगे। वहां भी घंटों बैठे रहते… मिजाज़ में कोई तब्दीली नहीं। जबकि दूसरे लोग आते और देखते-देखते निपटकर चले जाते। शायर दिल आखिर कब तक चुप रहता… फिर एक शे’र हो गया –
उधर तो लग रहे हैं चहचहे और क़हक़हे
इधर लबों पे मुस्कुराहट तक नहीं आती
तंग आकर उन्होंने दवा लेने का फैसला किया। हकीम के पास पहुंचे। सारी हालत बयां की। हकीम को ठिठोली सूझी और उसने चिरकीन को जमालघोटा थमा दिया। उसे खाते ही उनकी हालत खराब। डिब्बा लेकर जाते… उसे ठीक से खाली भी न कर पाते कि वह फिर भरने की गुहार लगाने लगता। आखिर जब पस्त पड़ गए तो दिल की गहराइयों से यह शे’र निकला –
दुनिया का रंज-ओ-ग़म इस कदर भर गया
कि आंसू निकल रहे हैं रस्ता बदल-बदल के
कमल किशोर सक्सेना