लखनऊ। लगातार भाजपा से मात खा रही कांग्रेस अब बेचैन है, और अब वह किसी भी तरह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। दरअसल इंडी गठबंधन के उसके साथी कभी-कभी या तो आंखें दिखा रहे हैं या फिर छोड़ कर चले जा रहे हैं। अभी हाल ही में आम आदमी पार्टी ने इंडी गठबंधन का साथ छोड़ दिया है, और उसने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। इसके अलावा कभी टीएमसी, कभी राजद और कभी समाजवादी पार्टी जैसे दल भी गाहे-बगाहे उसे आंखें दिखाते ही रहते हैं। ऐसे में अब कांग्रेस पार्टी अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है, और इसके लिए उसे एक विनिंग वोट समीकरण की तलाश है। इसके अलावा कांग्रेस अब मंडल विरोधी होने का ठप्पा भी साफ करना चाहती है।
शायद इसीलिए वह अब ओबीसी वोट बैंक में अपनी पैठ बनाने की कोशिश में है। पिछले दिनों कांग्रेस के भागीदारी न्याय सम्मेलन में राहुल गांधी द्वारा दिए गए भाषण में भी विशेष रूप से ओबीसी वर्ग को चिन्हित किया गया। इस मौके पर राहुल गांधी ने कहा कि अगर उन्हें मालूम होता कि ओबीसी वर्ग इतनी बड़ी संख्या में है तो वे कब का जाति जनगणना करा चुके होते। किंतु अब उन्हें समझ में आ गया है, और वे अब इसे करवा कर ही मानेंगे। ऐसे में उनका ये बयान उनके गठबंधन साथियों समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और टीएमसी को परेशान भी कर सकता है, क्योंकि इन पार्टियों का मूल आधार ही ओबीसी वर्ग है। एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि अगर राहुल गांधी की ये कोशिश परवान चढ़ी तो इसका नुकसान भी इन दलों को हो सकता है।
राहुल गांधी ने बीते शुक्रवार दिनांक 26 जुलाई को पार्टी के कांग्रेस भागीदारी न्याय सम्मेलन में कहा कि उन्हें इस बात का अफसोस है कि वे समय से यह काम नहीं कर पाए। ऐसे में लगता है कि राहुल गांधी की नजर अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के ओबीसी वोट बैंक पर है। राहुल गांधी के इस बयान के बहुत दूरगामी परिणाम भी होंगे, ऐसा लगता है। हालांकि राहुल गांधी ने इस मौके पर यह भी कहा कि मुझे ओबीसी, दलित और जनजाति वर्ग और महिलाओं की आवाज उठाने के लिए अव्वल नंबर भी मिलना चाहिए, क्योंकि मैं इनके लिए लगातार आवाज उठाता आ रहा हूं।
हालांकि इस कार्यक्रम में कांग्रेस के एक नेता कांचा इलैया ने बोलते-बोलते यह तक कह दिया कि राहुल गांधी मिक्स कास्ट के हैं, यानी देसी भाषा में कहें तो औरस संतान हैं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि फिर वह ब्राह्मण कैसे हो गए। दरअसल कांचा इलैया यह कहना चाहते थे कि राहुल गांधी बड़ी जाति का होने के बावजूद पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के लिए आवाज उठाते रहे हैं। और उनका हित रक्षक होने के कारण राहुल गांधी मिक्स जाति के हैं। कांचा इलैया के इस बयान को सत्तापक्ष ने तुरंत लपक लिया और सवाल उठा दिया कि फिर राहुल गांधी दत्तात्रेय ब्राह्मण कैसे हो गए। सनद रहे कि स्वयं राहुल गांधी और उनके पार्टी के लोग उन्हें दत्तात्रेय ब्राह्मण बताते रहे हैं।
खैर, कांग्रेस पार्टी पर आरोप है कि 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट बनकर तैयार हो जाने के बावजूद कांग्रेस की सरकार ने इसे दबाए रखा और लागू नहीं किया। इसको लेकर तब के समाजवादी नेता गण मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, जार्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार आदि कांग्रेस पर आरोप लगाते रहे हैं कि कांग्रेस चूंकि पिछड़ा विरोधी रही है, इसलिए उसने रिपोर्ट दबाकर रखा। बाद में जब वीपी सिंह की सरकार बनी तो ये रिपोर्ट लागू की गई थी। तब देश में इसके खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ। आरोप है कि इस निर्णय से नाराज भाजपा ने काफी दिनों बाद वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। हालांकि भाजपा इस बात से इन्कार करती है कि उसने अपना समर्थन इस आधार पर वापस लिया था। उसका कहना है कि उसने समर्थन वापस सरकार की अन्य नीतियों के खिलाफ लिया था। लेकिन कांग्रेस आज भी इस मुद्दे पर भाजपा को घेरती आ रही है। इस मामले में कांग्रेस को सर्वाधिक गुनहगार माना जाता रहा है, क्योंकि उस पर इस रिपोर्ट को दबा देने का आरोप लगता रहा है। ऐसे में अब राहुल गांधी उस पाप को धोने की लगातार कोशिश में हैं। वैसे भी वर्तमान समय में कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियां की पिछलग्गू के रूप में है। और मजबूरी में ओबीसी की बात कर रही है। ऐसे में शायद राहुल गांधी मौके पर चौका मारने के प्रयास में हैं, और आंख मूंद कर ओबीसी की बात करने लगे हैं। और शायद उनको यह समझ में आ गया है कि अब इस मुद्दे को इग्नोर नहीं किया जा सकता। इसीलिए शायद पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी जतीय जनगणना कराने की घोषणा कर राहुल गांधी के इस नैरेटिव को हाईजैक करने की कोशिश की है।
1980 में ही तैयार हो गई थी मंडल आयोग की रिपोर्ट : वर्ष 1979 में, भारत सरकार ने बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की स्थापना की थी। इस आयोग का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान और उनके उत्थान के उपायों की सिफारिश करना था। आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी थी, जिसमें ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की सिफारिश की गई थी। हालांकि इसके विरोध में आंदोलन भी शुरू हो गये थे। राजीव गोस्वामी अक्टूबर 1990 में दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में छात्र रहते हुए आत्मदाह का प्रयास करने वाले पहले छात्र थे। ओबीसी के लिए आरक्षण की शुरुआत 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर हुई थी। इसके लिए 6 अगस्त, 1990 को निर्णय लिया गया। इसकी घोषणा 7 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री ने संसद में की थी। इस निर्णय को कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी। 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद 1993 में इसे सरकारी नौकरियों में लागू कर दिया। इसके बाद यह 2006 में केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में भी ओबीसी आरक्षण लागू हुआ।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने का प्रभाव : 1990 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने संसद में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा की थी। इसके बाद उत्तर और पश्चिमी भारत में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए। कई छात्रों ने विरोध में आत्मदाह कर लिया और कुछ की मृत्यु भी हो गई। हालांकि इस पर दक्षिणी राज्यों की प्रतिक्रिया काफ़ी नरम रही, क्योंकि उन राज्यों में पहले से ही 50 फीसदी के क़रीब आरक्षण था, और इसलिए वे इन सिफ़ारिशों से ज़्यादा सहमत थे। इसके अलावा उन क्षेत्रों में उच्च जातियों का प्रतिशत 10 फीसदी से भी कम था, जबकि उत्तर भारत में यह 20 फीसदी से ज़्यादा था। इसका एक कारण यह भी था कि दक्षिणी राज्यों के युवा बेहतर औद्योगिक क्षेत्र के कारण सरकारी रोज़गार पर उतने ज़्यादा निर्भर नहीं थे।
1992 में ओबीसी आरक्षण को बहाल करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि केवल जाति ही सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का सूचक नहीं है। उसने कहा कि ओबीसी के ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय के 11 जजों द्वारा किया गया था।
अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक