बजट की आहट : आर्थिक झटका कहीं गरीब की कमर न तोड़ दे !

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पिछला बजट 2020-21 में 30.42 लाख करोड़ रुपये के व्यय की तुलना में 22.45 लाख करोड़ रुपये अर्थात 26 फीसद से भी अधिक या यूं समझिये कि लगभग 8 लाख करोड़ रुपये घाटा का था। राजस्व (रेवेन्यू) घाटा का स्तर जीडीपी का 2.7 फीसद और राजकोषीय घाटा 3.5 फीसद। बाद में स्थिति यह बनी कि 2020-21 की पहली छमाही खत्म होते होते यानी 2020 सितंबर तक राजकोषीय घाटा बजट में निर्धारित लक्ष्य से बढ़कर 115 फीसद के चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया।

नतीजतन आय के मुकाबले व्यय 9.14 लाख करोड़ रुपये अधिक होने की वजह से बजट में निर्धारित लक्ष्य 7.8 करोड़ रुपये के सापेक्ष बाजार उधारी 12 लाख करोड़ रुपये हो जाना ठीक नहीं रहा। जीएसटी संग्रह जोकि पूर्व वित्तीय वर्ष से अधिक ही होना चाहिए था, नहीं हो सका। वित्तीय वर्ष 2019-20 में पहले 9 महीनों अर्थात दिसंबर 2019 तक 9.08 करोड़ रुपये के मुकाबले में 2020-21 की समान अवधि में जीएसटी संग्रह बढ़ने के बजाय 1.28 लाख करोड़ रुपये कमती रहा, कम से कम 10-11लाख करोड़ रुपये होने की उम्मीद बजट घोषणा के बाद कर विशेषज्ञ कर रहे थे। कमी का प्रमुख कारण कोविड बना।

कोविड ने केवल कर संग्रह को डसा हो ऐसा नहीं, किसी को भी इसने बख्शा नहीं। बस एक अतिअल्पसंख्यक वर्ग पर इसने अपनी समूची कृपा ही न्योछावर कर दी। अपवाद के तौर पर देश के अरब-खरबपतियों के लिए कोविड साक्षात कुबेर का अप्रत्याशित वरदान साबित हुआ। डावोस में वर्ल्ड एकॅनाॅमिक फोरम के शुभारंभ के दिन एनजीओ ऑक्सफैन की आई रिपोर्ट में हमारे अपने अरब-खरबपतियों की हैसियत में कोविड लॉकडाउन में भी 35 फीसद के भारी-भरकम इजाफे ने सर्वप्रथम भारतीय उद्यमियों में अवसर का भरपूर दोहन करने की कुव्वत की कभी न मिटने वाली छाप पूरी दुनिया पर छोड़ दी।

साथ ही देश और देशवासियों दोनों का सीना छप्पन और नाक इतनी ऊंची कर दी जो भविष्य में किसी की भी पहुंच से बाहर ही रहेगी। खरबपतियों की इस उपलब्धि से सार्वजनिक हित पूरे होने वाले नहीं। बल्कि देश में पहले से व्याप्त असमानता की खाईं और चौड़ाएगी। दरअसल सर्वाधिक कर्ज से बोझिल अर्थव्यवस्थाओं में शुमार अपना देश कमजोर वित्तीय प्रणाली के भयानक रोग से भी ग्रस्त है। जिसका इलाज अभी तक तो नहीं हो पाया और इसकी सीधी जवाबदेही नीति निर्धारकों की ही बनती है। भारतीय अर्थव्यवस्था जोखिमवृद्धि की अर्थव्यवस्था हो गई है। इसके सख्त इलाज में और टालमटोल की गई तो मुल्क में आर्थिक सामाजिक हालात बद से बदतर होने में अधिक समय नहीं लगेगा। वैश्विक के साथ ही घरेलू रेटिंग एजेंसयों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने स्पष्टरूप से कहा भी है।

प्रणतेश नारायण बाजपेयी