यही है शेर के जबड़े से शिकार छीनने का हुनर

* हरियाणा का चुनाव जीत कर भाजपा ने किया कमाल * हरियाणा में तो कांग्रेस का अति आत्मविश्वास भी हारा है * दलितों और पिछड़ों ने एक बार फिर कर ली घर वापसी * सिर्फ जाटों पर आश्रित होना भी कांग्रेस को पड़ गया भारी * इंडी गठबंधन का बिखराव भी कर गया भाजपा की मदद

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नयी दिल्ली। हरियाणा में तो भाजपा शेर के जबड़े में से अपनी सरकार निकाल लाई। न सिर्फ निकाल लाई बल्कि शेर को धराशाई भी कर दिया। और यह दलितों और पिछड़ों की घर वापसी का कमाल है। इसमें सोने में सुहागा का काम किया इंडी गठबंधन के बिखराव ने। राज्य के बड़े कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा की जिद के चलते आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी को कांग्रेस ने तवज्जो नहीं दी, जिसके चलते पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा। एक अनुमान के अनुसार आम आदमी पार्टी ने लगभग दो प्रतिशत से अधिक वोट लेकर कांग्रेस का काम बिगाड़ दिया। पांच सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों की हार का कारण भी आम आदमी पार्टी ही बनी।

इसके अलावा कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के इतने दावेदार थे कि जनता कंफ्यूज हो गई। पार्टी का प्रचार तंत्र भी सिर्फ जाटों पर केंद्रित था, इसलिए दलित और पिछड़े वर्ग ने खुद को उपेक्षित महसूस किया। जिसके चलते उसने साइलेंट वोटिंग कर कांग्रेस को उसकी हैसियत बता दी। कांग्रेस के नेताओं ने यह नैरेटिव सेट किया था कि जाट हमारे साथ पूरी तरह हैं, और हम चुनाव जीत रहे हैं। जबकि राज्य में जाट मतों में भी बंटवारा हुआ। इसका खमियाजा भी कांग्रेस पार्टी को उठाना पड़ा। प्रचार के आखिरी दौर में कुमारी शैलजा की कभी हां और कभी ना की पॉलिटिक्स ने भी दलितों को कंफ्यूज किया। इसके चलते भी दलित वर्ग कांग्रेस पार्टी के साथ नहीं जुड़ा और परिणाम कांग्रेस के लिए निराशाजनक रहे। इस चुनाव ने इंडियन नेशनल लोकदल को छोड़कर हरियाणा के लगभग सभी छोटे दलों का सफाया भी कर दिया है।

हरियाणा के चुनाव परिणाम देखने से पता चलता है कि राज्य की जनता ने छोटे दलों का राज्य से लगभग सफाया कर दिया है। इसमें से सिर्फ इंडियन नेशनल लोकदल ही अपनी इज्जत बचा पाया है। उसे दो सीटें मिली हैं, जो पिछली बार से एक सीट ज्यादा है। पिछली बार भाजपा के साथ सत्ता की भागीदार रही जेजेपी यानी जनहित जनता पार्टी का भी इस बार सफाया हो गया है। हाल यह है कि उसके अध्यक्ष दुष्यंत चौटाला भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। पिछली बार 10 सीटें जीतने वाली यह पार्टी इस बार शून्य पर चली गई है। भाजपा ने इस बार शानदार प्रदर्शन करते हुए पिछले बार की 40 सीट वाली संख्या को आगे बढ़ाते हुए 48 पर पहुंचा दिया है।

अब तो दो निर्दलीय विधायक भी भाजपा में शामिल हो गए हैं। इसलिए अब भाजपा की औपचारिक संख्या 48 से बढ़कर 50 हो गई है। हालांकि सत्ता से दो कदम दूर रह गई कांग्रेस ने भी बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने सीटों की संख्या में 6 का इजाफा किया है और उसे 31 से बढ़ाकर 37 पर पहुंचा दिया है, परंतु उसका यह प्रदर्शन किसी काम नहीं आया। इस बार अन्य के खाते में एक सीट आई हैं, जो पिछली बार आठ थीं। राज्य की सभी नब्बे सीटों पर प्रत्याशी उतारने वाली आम आदमी पार्टी भी कोई सीट नहीं जीत पाई है। हां यह जरूर है कि उसने दो प्रतिशत से अधिक मत लेकर कांग्रेस पार्टी का खेल बिगाड़ दिया है।

हरियाणा चुनाव को करीब से देखने वालों का मानना है कि 10 सालों से सत्ता से बाहर रही कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता इस बार कुछ शिथिल पड़ गए थे। उन्हें लगता था कि भाजपा 10 साल से सत्ता में है। और हमने लोकसभा चुनाव में उसे आधा कर ही दिया है। तो ऐसे में एंटी इनकंबेंसी के फैक्टर पर हम विधानसभा चुनाव जीत ही जाएंगे। नेताओं, कार्यकर्ताओं का यही अति आत्मविश्वास उन्हें ले डूबा। वैसे पार्टी ने चुनाव के लिए भी देर से कमर कसी। इसके अलावा 10 सालों में कांग्रेस पार्टी बीजेपी सरकार की कमियों और लोगों के मुद्दों को भी जोरदार ढंग से नहीं उठा पाई। हां, यह जरूर है कि बीते लोकसभा चुनाव में पार्टी ने बेहतर परिणाम दिए थे और राज्य की 10 में से 5 सीटों पर जीत दर्ज की थी। ऐसे में हरियाणा में कांग्रेस की हार का सबसे पहला कारण जनता से जुड़ाव का न होना और भाजपा सरकार की कमियों को ठीक से उजागर न कर पाना है।

पार्टी की हार का एक और अहम कारण गुटबाजी है। इसने कार्यकर्ताओं तक को एक-दूसरे से दूर रखा। गुटबाजी को साफ तौर पर अब भी देखा जा सकता है। पार्टी के तीन वरिष्ठ नेता भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला के समर्थकों में आपस में जरूरी तालमेल नहीं दिखा। तीनों नेताओं के समर्थक कार्यकर्ता अपने-अपने नेताओं को सीएम पद की दौड़ में सबसे आगे देखना चाहते थे। इसके चलते उनकी तवज्जो अपने नेताओं की जी हुजूरी करने में ही लगी रही। मुख्यमंत्री पद के जावेदारी के विषय में रणदीप सुरजेवाला की ओर से भले ही कोई बयान न आया हो, लेकिन वे राज्य की कांग्रेसी राजनीति में एक धुरी बन गए थे।

दूसरी ओर भूपिंदर सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच की कड़वाहट सार्वजनिक मंचों पर भी देखने को मिल रही थी। दोनों ही नेताओं की सीएम बनने की इच्छा उनके बयानों से सामने आ रही थी। इसके चलते राज्य का कांग्रेसी कार्यकर्ता और जनता दोनों ही कंफ्यूज थी। हालांकि अपने मंच पर राहुल गांधी ने दोनों के हाथ मिलवा कर, हाथ उठवाकर एकता का संदेश देने की कोशिश की किंतु यह भी किसी काम नहीं आया। राहुल गांधी ने तो लाइटर मोड में यह भी कहा था कि कांग्रेस बड़ी पार्टी है, इसमें सिर्फ शेर रहते हैं। और कभी-कभी शेर आपस में लड़ने लगते हैं तो हमें बीच में आकर उन्हें शांत करना पड़ता है। राहुल गांधी के इस बयान ने तालियां तो खूब पटोरीं लेकिन वे उन्हें वोट में तब्दील नहीं करा पाए।

कांग्रेस पार्टी की ओर से सीएम पद का दावेदार कौन है, इसका ऐलान न करना भी हार का एक कारण रहा है। यदि पार्टी पहले से ही सीएम पद के दावेदार का ऐलान कर देती तो शायद यह गुटबाजी देखने को नहीं मिलती। कार्यकर्ता न तो कंफ्यूज होता और न गुटबाजी को ही प्रश्रय मिलता। इससे कार्यकर्ताओं में जोश भी बराबर रहता और सभी एक नेता के नाम के साथ जनता के बीच जाते। जनता को भी किसी प्रकार का कोई संशय नहीं होता। परंतु पार्टी अपने नेताओं की अंतर्कलह को अंत तक खत्म करने में कामयाब नहीं हो पाई। शायद इसीलिए अंतिम समय तक मुख्यमंत्री पद के दावेदार का ऐलान नहीं हो सका। हालात कितने खराब थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता एग्जिट पोल के नतीजे आने के बाद से बिना अंतिम परिणाम की प्रतीक्षा किये मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी-अपनी दावेदारी प्रस्तुत करते रहे। यहां तक कि मतगणना के दिन सुबह भी वे मीडिया को दिए बयानों में इसी ओर इशारा कर रहे थे। हुड्डा तो दिल्ली का दौरा भी कर आए।

कांग्रेस की हार का चौथा कारण दलित समाज के वोटों का सरकना भी है। बीते लोकसभा चुनाव में जाट और दलित वोटों ने मिलकर कांग्रेस का बेड़ा पार लगाया था। पर इस बार दलित वोटरों ने घर वापसी कर ली। यानी की उन्होंने फिर भाजपा का दामन थाम लिया। इसके पीछे कारण बताया जा रहा है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके समर्थक सिर्फ जाट, जाट और जाट की ही बात करते रहे। उधर भाजपा के कार्यकर्ताओं ने यह नैरेटिव सेट कर दिया कि अगर जाटों की सरकार आ गई तो पिछली कांग्रेस सरकारों की तरह फिर उनका उत्पीड़न होगा। इसके अलावा विदेश में राहुल गांधी द्वारा दिए गए आरक्षण हटाने के बयान का भी काफी असर हुआ। इससे दलित और पिछड़े वर्ग के वोटर इस बात से भय खाने लगे कि अगर कहीं जाटों की सरकार आ गई तो उन्हें दिक्कत होगी।

ऐसे में भूपेंद्र सिंह हुड्डा जाट वाले के नैरेटिव ने दलित और पिछड़ों को डरा दिया। और फिर उन्होंने साइलेंट हो करके भाजपा के पक्ष में माहौल तैयार कर दिया। राज्य में जाटों का वोट प्रतिशत करीब 22 प्रतिशत है जबकि 20 प्रतिशत दलित वोटर हैं। ऐसे में दलितों का वोट पार्टी से निकल जाना कांग्रेस को नुकसान दे गया। उधर राज्य के ओबीसी वोटर मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के चलते भाजपा के पक्ष में एकजुट रहे। इस प्रकार अंदर ही अंदर भाजपा के पक्ष में अंडर करंट था जिसे कांग्रेस भांप नहीं पाई। इस प्रकार राज्य में ओबीसी और दलित वोट इस बार फिर बीजेपी के पक्ष में आ गए। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी का पूरा जोर जाट वोटरों पर था। प्रतिक्रिया स्वरूप दलित और पिछड़े वोट भाजपा के पक्ष में यूनाइटेड हो गए। जिसका खमियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा है।

कांग्रेस की हार का एक और कारण राज्य में इंडी अलायंस का न बन पाना है। राज्य में कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार भूपेंद्र सिंह हुड्डा के चलते इंडी एलायंस के दो प्रमुख दल समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी से चुनावी गठबंधन नहीं हो पाया। बताया जाता है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कांग्रेस आलाकमान को इतने मानसिक दबाव में ले रखा था कि उन्हें खुली छूट मिल रखी थी। लोग बताते हैं कि उनके सर पर राहुल गांधी का हाथ था। इसके चलते सीट बंटवारे में भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा की ही चली। इस कारण कुमारी शैलजा तथा रणदीप सिंह सूरजेवाला के समर्थकों को कम टिकट मिले। भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने ही राहुल गांधी को समझाया था कि हम बिना किसी गठबंधन के राज्य में चुनाव जीत जाएंगे और हमारी सरकार बनना तय है। इसके चलते भूपेंद्र सिंह हुड्डा के अति आत्मविश्वास ने हरियाणा में कांग्रेस की लुटिया डुबो दी। हुड्डा के चलते ही राज्य में समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी से गठबंधन नहीं हो सका। नतीजा यह हुआ कि समाजवादी पार्टी का मैनपॉवर भी कांग्रेस के काम नहीं आया।

समाजवादी पार्टी का सारा मैन पावर आम आदमी पार्टी के साथ लगा रहा। ऐसे में आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी ने मिलकर कांग्रेस का बहुत सारा वोट काटा। जिसके चलते कांग्रेस की यह दुर्गति हुई है। राज्य में आम आदमी पार्टी कांग्रेस से 90 सीटों में से 10 सीटों की मांग कर रही थी जबकि समाजवादी पार्टी भी सिर्फ 2 सीटें चाह रही थी। लेकिन अंतिम समय तक सहमति नहीं बन पाई। खबर है कि कांग्रेस नेताओं ने आप और सपा नेताओं के फोन उठाने भी बंद कर दिए थे। ऐसे में आम आदमी पार्टी ने नाराजगी में अपने 90 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दी थी। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस की अच्छे परफॉर्मेंस वाली सीटों की मांग कर रही थी। ऐसे में कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं भूपेंद्र सिंह हुड्डा और रणदीप सुरजेवाला ने गठबंधन के विरोध में अपनी राय व्यक्त की। पार्टी की ओर से इस कार्य के लिए तैनात किए गए नेता अजय माकन ने भी दोनों की बात को स्वीकारा और अंततः गठबंधन नहीं हो पाया।

इसके चलते समाजवादी पार्टी भी नाराज होकर कांग्रेस के लिए प्रचार में नहीं उतरी। एक आंकड़े के अनुसार आम आदमी पार्टी को करीब 2 फीसदी मत मिले हैं। अगर यह दो प्रतिशत मत कांग्रेस के साथ जुड़ जाते तो हो सकता है कि कहानी कुछ और होती। इस प्रकार नेताओं की अदूरदर्शिता के चलते भी कांग्रेस की यह दुर्दशा हुई है। हरियाणा में यह साफ देखा जा सकता है कि आपसी कलह ने कांग्रेस पार्टी को कितना नुकसान पहुंचाया है। संघ के कार्यकर्ताओं ने केरल की पल्लकड़ बैठक के बाद जी जान से लगकर हरियाणा में भाजपा की जीत आसान कर दी। वे संघ प्रमुख के निर्देश के बाद साइलेंटली दलितों और पिछड़ों के बीच काम करते रहे। उन्होंने मतदाताओं को बूथ तक भी पहुंचाया। इसका अनुमान कांग्रेस और उसके रणनीति कार नहीं लगा पाए। हरियाणा का चुनाव अंतिम दौर में जाट वर्सेस गैर जाट पर आकर रुक गया था। जिसका नुकसान कांग्रेस को हुआ।

भविष्य में इस प्रकार के नुकसान से बचने के लिए पार्टी को कदम उठाने पड़ेंगे। पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को हर अहम मुद्दे पर लोगों के बीच जाना होगा और सरकार पर दबाव बनाना होगा। इसके अलावा जो सबसे बड़ी जिम्मेदारी पार्टी के लिए यह होगी कि वह अपने जीते हुए विधायकों को भी एकजुट रख सके। क्योंकि सत्ता के साथ रहने की लालच सबमें होती है। दो निर्दलीयों का चुनाव जीतने के बाद तुरंत भाजपा में शामिल हो जाना तो कम से कम इसी बात का संकेत है। ऐसे में कांग्रेस को भी सावधान रहना चाहिए।

गौरव शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार