मायावती को अब भाजपा के साथ आ जाना चाहिए

* भाजपा और बसपा को एक-दूसरे की सख्त जरूरत है इस समय * 2019 के लोस परिणाम के आंकड़े तो अब यही इशारा कर रहे हैं * बसपा का मजबूती से लड़ना या नहीं लड़ना दोनों भाजपा के लिए फायदेमंद

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लखनऊ। जिस प्रकार 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत में बसपा का बहुत बड़ा हाथ था वैसे ही 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार में भी बसपा का बहुत बड़ा हाथ रहा। ये दोनों पार्टियां जब भी साथ मिलकर लड़ी हैं तो परिणाम सकारात्मक ही हुए हैं। वर्ष 2019 में जिन स्थानों पर बसपा ने अपने प्रत्याशी नहीं खड़े किए थे उन जगहों पर बसपा का वोट बैंक भाजपा को ट्रांसफर हो गया था और लगभग उन सभी स्थानों पर भाजपा प्रत्याशी जीत गए। वहीं इस लोकसभा चुनाव में बसपा ने यूपी में सभी जगहों पर प्रत्याशी खड़े किए थे। इसलिए कई स्थानों पर बसपा ही भाजपा की हार का कारण बनी। क्योंकि इन सीटों पर बसपा प्रत्याशियों को जितने वोट मिले उससे भी कम वोटो के अंतर से भाजपा प्रत्याशी हार गए। यानी कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि भाजपा की जीत और हार बसपा के वोट समीकरणों पर आधारित है।

ऐसे में अब दोनों पार्टियों में ये चर्चा चल पड़ी है कि अब समय आ गया है कि दोनों पार्टियों को चुनावी गठबंधन में आ जाना चाहिए। क्योंकि यही वो समीकरण है तो सपा और कांग्रेस के गठबंधन की काट हो सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जहां 41% वोट मिले वहीं बसपा को 9.39% वोट मिले हैं। और दोनों के वोटो को अगर मिला दें तो यह 50 फ़ीसदी पार कर जाता है। और यह वोट प्रतिशत तब है जब दोनों ही पार्टियां हैं अपने सबसे खराब प्रदर्शन की स्थिति में है। और जरूरी नहीं कि आगे चलकर उनका प्रदर्शन ठीक नहीं होगा।

2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने जो जनादेश दिया है वह बसपा और भाजपा के लिए यह संकेत है कि अब दोनों दल सारे मतभेद भुलाकर एक साथ मिलकर चुनाव लड़ें। आंकड़े गवाह हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जहां-जहां बसपा ने प्रत्याशी नहीं उतारा था वहां भाजपा ने बढ़त हासिल की थी। और जहां बसपा ने अपने प्रत्याशी उतारे थे वहां भाजपा को जीतने में मुश्किल हुई थी। पिछले लोकसभा चुनाव में 50 फीसद वोट पाने वाली भाजपा इस लोकसभा चुनाव चुनाव में मात्र 41 फीसदी वोट ही पा सकी। नौ फ़ीसदी मतों की इस गिरावट और मुसलमानों की एकजटता ने भाजपा को उत्तर प्रदेश में दूसरे नंबर की पार्टी बना दिया है। पार्टी के रणनीतिकार जनता के इस निर्णय को देखकर हैरान हैं। पार्टी ने हार के कारणों की खोज शुरू कर दी है। और कारणों का पता लगाने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स बनाया गया है। इस टास्क फोर्स की बैठकें भी शुरू हो गई है।

चुनावी आंकड़ों पर गौर करें तो यूपी में भाजपा और बसपा का वोट मिलाकर एक विनिंग कम्बीनेशन बनता है। और यह कांग्रेस-सपा गठबंधन को मात देने की स्थिति में है। वैसे भी अब मायावती को केंद्र की राजनीति करनी चाहिए और उत्तर प्रदेश की कमान अपने भतीजे आकाश आनंद को सौंप देनी चाहिए। उनका एग्रेसिव प्रचार का अंदाज बसपा का वोट बैंक इंटैक्ट रखता और पार्टी की ये दुर्गति न होती। यह भी सच है कि जब तक सतीश चंद्र मिश्रा पार्टी के रणनीतिकार हुआ करते थे तब तक बसपा मजबूत थी। किंतु इन परिणामों ने बसपा को अप्रासंगिक बना दिया है। उनका अपना कोर वोट भी उससे छिटका है। इस बार मुसलमानों ने भी भाजपा के खिलाफ कांग्रेस और सपा गठबंधन में एक विकल्प देखा और उनके साथ चले गए। नतीजा यह हुआ कि पूरे प्रदेश में बसपा को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली। जो पार्टी कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ सरकार चला रही थी उसकी दुर्गति चिंताजनक है।

हालांकि कल की तारीख में यूपी में विस चुनाव आते-आते सपा और कांग्रेस का गठबंधन कितना चल पाएगा कह पाना मुश्किल है। क्योंकि अभी से कांग्रेस पार्टी ने पूरे प्रदेश में धन्यवाद यात्राएं शुरू कर दी हैं और समाजवादी पार्टी उसके साथ नहीं है। सपा के सूत्रों का कहना है कि पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव तात्कालिक रूप से ही दिल्ली गए हैं। वे विस चुनाव आते-आते फिर लखनऊ लौट आएंगे। तब तक कुछ बडबोले कांग्रेसी राहुल गांधी को बड़ा बनाने के चक्कर में ऐसा कुछ कर ही देंगे जिससे गठबंधन में गांठ पड़ जाए। जैसा कि दिल्ली और हरियाणा के लिए आम आदमी पार्टी ने घोषणा कर दी है। आप ने कह दिया है कि कांग्रेस से हमारा गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव तक था। अब हम दोनों राज्यों में अकेले विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। हो सकता है इसी तर्ज पर समाजवादी पार्टी भी कोई कदम उठा ले। अगर ऐसा नहीं भी होता है तब भी बसपा और भाजपा के वोट मिलकर अपना काम कर ही जाएंगे।

अब आंकड़ों पर गौर करें तो इस बार बसपा के खराब प्रदर्शन ने भी भाजपा का खेल बिगाड़ा है। पिछले लोस चुनाव में जिन 41 सीटों पर बसपा नहीं लड़ी थी वहां भाजपा को विजय मिली थी। उसके दलित वोट समाजवादी पार्टी के साथ न जाकर भाजपा में शिफ्ट हो गए थे। किंतु इस बार खेल पलट गया और मायावती को कमजोर देखकर दलित वोटरों ने भाजपा की जगह इंडी गठबंधन को चुना। इस बार मायावती की पार्टी के सभी सीटों पर लड़ने से भी बसपा को मिले वोटों ने बीजेपी का गणित गड़बड़ा दिया।

उदाहरण के तौर पर 2019 में मुजफ्फरनगर में बसपा ने अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था और भाजपा जीत गयी थी। लेकिन इस बार संजीव बालियान के खिलाफ लड़े हरेंद्र मलिक को बसपा के दारा सिंह प्रजापति के लड़ने का फायदा मिला। यहां बसपा उम्मीदवार एक लाख 43 हजार वोट पाए और संजीव बालियान 24 हजार वोटों से हार गए। वहीं, बदायूं में पिछली बार ज्यादातर दलित वोट बीजेपी के साथ गया था क्योंकि बसपा का यहां उम्मीदवार नहीं था। बसपा ने इस बार मुस्लिम को टिकट दे दिया। उन्हें 97000 से ज्यादा वोट मिल गये और बीजेपी के दुर्विजय सिंह शाक्य मात्र 35 हज़ार वोट से चुनाव हार गए। ये दो सीटें तो बानगी हैं। ऐसी और 22 सीटों पर बीजेपी को हार मिली है जहां पिछली बार बसपा के नहीं होने का फायदा उसको मिला था।

2022 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार बसपा को लगभग तीन फीसदी वोट कम मिले हैं। और इसमें से अधिकतर वोट इंडी गठबंधन को शिफ्ट हुए हैं। ऐसे में बसपा के लिए अपने वोटों को रोकना आज सबसे बड़ी चुनौती है। नगीना जैसी सीट पर भी बसपा को सिर्फ साढे 13 हज़ार वोट मिले। यहीं से मायावती ने अपनी सियासत की शुरुआत की थी। यहां इस बार चंद्रशेखर आजाद जीते हैं। उन्हें बसपा से 5 लाख ज्यादा वोट मिले हैं। हालांकि, मायावती को लगता है कि उनका अपना कोर वोटर आज भी उनके साथ है, पर ऐसा नहीं है। उन्हें जाटवों के अलावा और किसी दलित का वोट ना के बराबर मिला है। मुसलमानों को टिकट देने का भी उन्हें कोई फायदा नहीं मिला। उन्होंने टिकट मिलने के बावजूद बसपा को वोट नहीं किया।

मायावती ने नतीजे के बाद अपने बयान में इस बात को कहा भी है। मायावती ने कहा है कि आगे से मुसलमानों को राजनीतिक भागीदारी देने में वह सतर्क रहेंगी। वैसे दर्जनभर से ज्यादा सीटों पर बीजेपी को बसपा से फायदा भी मिला। बीजेपी की जीती हुई 33 सीटों में से 16 सीटें ऐसी हैं, जहां बसपा को मिले वोट बीजेपी के इंडी गठबंधन पर जीत के मार्जिन से ज्यादा हैं। यानी बसपा ने ज्यादा वोट हासिल करके भाजपा की इज्जत बचा ली अन्यथा भाजपा की स्थिति प्रदेश में और भी खराब हो जाती। हालांकि, 23 सीटें ऐसी भी मानी जा रही हैं जहां बसपा ने अच्छे वोट हासिल किए जिससे इंडी गठबंधन को नुकसान हुआ।

लेकिन ये वो सीटें हैं जहां पर बसपा हमेशा से मजबूत रही है। ऐसी 23 सीटें है, जिनमें बुलंदशहर, मथुरा, हाथरस, शाहजहांपुर, मिश्रिख, हरदोई, उन्नाव, फर्रुखाबाद, अकबरपुर, कैसरगंज, भदोही, बहराइच, डुमरियागंज, महाराजगंज, कुशीनगर, देवरिया और बांसगांव हैं। दूसरी तरफ बसपा प्रत्याशी जहां कम वोट पाए या बिखराव ज्यादा हुआ वे सीटें इंडी गठबंधन को चली गई। माना जा रहा है कि इनमें इटावा, धौरहरा, खीरी, एटा, संभल, मोहनलालगंज, हमीरपुर, जालौन, सुल्तानपुर, बांदा, फतेहपुर, लालगंज, अंबेडकर नगर, जौनपुर, मछली शहर, सलेमपुर, गाजीपुर, चंदौली और घोसी आदि शामिल हैं।

कुल मिलाकर समीकरण यह है कि बसपा का वोट बैंक भाजपा के लिए इस चुनाव में महत्वपूर्ण रहा। ऐसे में अब दोनों ही पार्टियों को आपस में बैठकर मंथन करना चाहिए और अगला विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ना चाहिए। ताकि सपा और कांग्रेस के गठबंधन को मजबूत चुनौती दी जा सके।

अभयानंद शुक्ल
राजनीतिक विश्लेषक