आध्यात्मिक दृष्टिकोण से श्रावण मास को पवित्र एवं भगवान शिव की भक्ति का विशेष माह माना गया है, धार्मिक ग्रंथों एवं ऋषियों के अनुसार श्रावण के पवित्र माह में पृथ्वी लोक पर शिव-शक्ति की विशेष ऊर्जा का वास रहता है। इसलिए इस दौरान भगवान शिव की आराधना करने, कांवड़ चढ़ाने तथा उनका अभिषेक करने में विशेष फल प्राप्त होते है, इसके पीछे अनेक किंवदंतियाँ हैं। जिनके अनुसार यह माना जाता है कि श्रावण मास में ही माता पार्वती ने कठोर व्रत एवं तप करके भगवान भोलेनाथ को पुनः प्राप्त किया था। इसी कारण भगवान शिव प्रतिवर्ष श्रावण माह में पृथ्वीलोक में स्थित अपने ससुराल में प्रवास करने आते है। वहीं दूसरी किंवदंती के अनुसार यह मान्यता है कि इस माह में ही मारकण्डेय ऋषि ने अपनी कठोर तपस्या से भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करके उनके आर्शीवाद से यम को परास्त करके अमरत्व को प्राप्त किया था। एक अन्य किंवदंती यह भी है कि इसी दौरान समुद्र मंथन हुआ था जिसमें से निकले हलाहल विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया था। जिसके दुष्प्रभाव के कारण जब वे काफी विचलित होने लगे तो उन्हें शांति प्रदान करने हेतु इन्द्र देवता ने भारी वर्षा की तथा सभी देवताओं ने उनका जलाभिषेक किया।
यद्यपि इन किंवदंतियों की विश्वसनीयता पर निश्चित रूप से कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता परन्तु कलयुग में भी इन किंवदंतियों की मान्यता को अभी तक आत्मसात करने के पीछे कई आध्यात्मिक कारण हैं जो समाज एवं प्रकृति के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है, आइये इन आध्यात्मिक कारणों को विस्तार से समझते हैं।
भगवान शिव का दूसरा नाम है ‘कल्याण’ अर्थात् समुद्र से निकले विष को वृहद लोक कल्याण में पीने वाला नीलकण्ठ। मनुष्यों के मन से उपजे तमस् अर्थात् क्रोध, घृणा, तृष्णा, परनिंदा व लालच की आसक्ति वाले मानसिक विचारों से वातावरण में उपजे विष का हरण भगवान शिव पृथ्वी में स्थान-स्थान पर स्थापित शिवलिंगों के माध्यम से नियमित रूप से करते रहते हैं, विज्ञान भी कहता है कि शिवलिंग के आसपास विनाषक रेडियेशन (घातक विष) होता है अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिवलिंग की यह प्रकृति है कि वह जहाँ पर स्थापित होता है उसके आासपास के कई किलोमीटर क्षेत्र तक फैले प्राकृतिक तामसिक प्रदूषण (विष) को वह निरंतर अपनी ओर आकृष्ट कर उसका हरण करता है। इन्ही कारणों से शिवालयों की स्थापना आवासीय क्षेत्रों अर्थात् गांवों, कस्बों व शहरों से दूर स्थित बाग, तालाब एवं नदियों के किनारे किये जाने का प्राविधान था जहाँ पर कोई पुजारी नियमित रूप से निवास नहीं करता था, इसके अतिरिक्त शिवलिंग पर चढ़ाये गये पदार्थो को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने का भी प्राविधान नहीं है अन्यथा शिवलिंग के आस-पास नियमित रहने तथा प्रसाद ग्रहण करने वाले साधक के मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाने की मान्यता थी।
चूँकि शिवलिंग का एक भाग आदिशक्ति स्वरूपा माता पृथ्वी तत्व में समाहित रहता है और पृथ्वी तत्व में अच्छे-बुरे, गंदगी एवं प्रदूषण आदि सभी तत्वों को अपने अंदर समाहित करने का गुण विद्यमान होता है। शिवलिंग द्वारा प्रकृति से एकत्रित की गयी विषैली ऊर्जा किसी प्राणी मात्र को क्षति पहुँचाये बिना ही शीघ्रातिशीघ्र पृथ्वी तत्व में समाहित हो जाय इसके लिए ही स्थानीय मनुष्यों द्वारा शिवलिंग पर हरे एवं ठण्डी प्रकृति के फल, फूल, पत्तियों, जल एवं दूध का अभिषेक किया जाता है। जिससे प्रकृति से ग्राह्य की गयी विषैली ऊर्जा को जल एवं ठण्डी प्रवृत्ति वाले पदार्थो के माध्यम से पृथ्वी अपने अंदर समाहित कर सके और जिससे शिवलिंग के आसपास के वातावरण की ऊर्जा प्रकृति में बदलाव आ जाता है।
भगवान भोलेनाथ की भक्ति एवं शिवलिंग पर जलाभिषेक तो नियमित होता है। परन्तु श्रावण मास में विशेष भक्ति का कारण इसके थोड़ा से हटकर परन्तु इन्ही तथ्यों से जुड़ा है, संसार में सत्व, रज् एवं तम् रूपी त्रिगुणी ऊर्जा के संतुलन से सृजन, संचालन एवं विनाशक कार्य त्रिदेव एवं त्रिदेवियां अपनी ऊर्जाओं करते है, इसमें भगवान ब्रह्मा जी एवं माता सरस्वती जी सत्व गुण से सृजन एवं आंनद, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी संचालन एवं ऐश्वर्य का प्रसार करते है। वहीं भगवान शिव एवं माता पार्वती अपनी तमस् गुणों की ऊर्जा से विनाशक प्रक्रिया के साथ प्राकृतिक वातावरण में इन्हीं गुणों से उत्पन्न होने वाली तमस की अधिकता का संतुलन करके समाज को होने वाले कष्टों का हरण भी करते हैं। यही गुण हमारे ऋतुओं में विद्यमान होते है। कभी यही ऋतुएं हमें ऐश्वर्य एवं आनंद की प्राप्तियाँ कराती है तो कभी इन गुणों की अधिकता से प्रकृति प्रदूषित और विध्वंसक हो जाती है और वह स्वतः अपने एवं अपनों का विध्वंस करने लगती है।
संसार में जहाँ जैसी मनस व्यवस्था वहाँ वैसा ही प्राकृतिक वातावरण अर्थात् जैसे यदि किसी शहर में बहुत प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ हजारों-करोड़ों श्रद्धालु दर्शन करने उस शहर में आते रहते हैं तो उस शहर का वातावरण भी आध्यात्मिक हो जाता है। जीव के मन को ही भवसागर अर्थात् भावनाओं का सागर कहा गया है, चूँकि गर्मी के मौसम में तमस की अधिकता के कारण स्थिर प्रकृति के जीवन वाली बनस्पतियों, पे़ड-पौधों और वन्य जीवों का जीवन नष्ट होने लगता है और मनुष्यों की जीविका और आंनद के आवश्यक संसाधन नष्ट होने लगते है, इस कारण संसार के जीवों का मन भी तमस प्रधान अर्थात् क्रोध, लालच, घृणा, सहित येन-केन प्रकारेण अपनी तृष्णा की पूर्ति करने जैसी प्रवृत्तियों का जन्म होने लगता है, इस मनस की असंतुलित व्यवस्था से प्रकृति भी घोर संक्रमित हो जाती है, प्रकृति में होने वाले इस प्रकार के संक्रमण को ही आध्यात्म में विष कहा गया है, इस विष का हरण कर प्रकृति की विषाक्त स्थिति को संतुलित एवं संरक्षित करने के लिए पंचमहाभूत नियंता शून्य रूपी आकाश स्वरूप पर आधिपत्य रखने वाले भगवान शिव वर्षा ऋतु में आकाश तत्त्व से जल-वृष्टि करके प्रकृति की विषाक्त स्थिति को निष्प्रभावी करके तमस गुण को संतुलित करने का कार्य करते हैं। जिससे पुनः जीवों को संसाधन प्राप्त होने लगते है और उनकी मनस व्यवस्था में आनंद एवं शांति का वातावरण उत्पन्न होता है।
श्रावण मास में वर्षा ऋतु का आरम्भ होते ही समस्त पृथ्वीवासी मनुष्य, पेड़-पौधे एवं जीव-जंतु खुशी से झूम उठते है और इस सांसारिक विष का हरण करने वाले भगवान भोलेनाथ का शुक्रिया अपनी भक्ति एवं कठिन से कठिन साधना से करते है। इसीलिए श्रावण मास में ही शिवभक्त कठिन साधना कर सुदूर शिव मंदिरों में जाकर कांवण चढ़ाते है तथा छोटे-बड़े सभी शिवलिंगों पर पूरे माह हर-हर महादेव के नारों (यहां हर-हर का अर्थ हरण से है) के साथ उनका जल, दुग्ध सहित वेलपत्र सहित विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक औषधीय वृक्षों एवं वनस्पतियों के फल-फूलों से सम्पूर्ण अभिषेक करते है। चूँकि जल, दुग्ध, हरित पत्तियाँ, फल एवं फूल की प्रकृति ठण्डी होती है। इसीलिए नर एवं नारायण अर्थात जीव एवं भगवान शिव मिलकर प्राकृतिक विषैली ऊर्जा का हरण करके समाज का कल्याण करते है। इसीलिए श्रावण को अत्यन्त पवित्र और कल्याणकारी मास कहा गया है।
भगवान शिव के विषय में वेदों में यह कहा गया है कि जो नहीं है अनंत है वहीं शिव है, बिना शिव के शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं और शक्ति के बिना शिव शव समान है, यहाँ शक्ति को माता पार्वती कहा गया है। इसको सीधे शब्दों में इस प्रकार समझें कि हर मनुष्य में चेतना के रूप में शिव का वास होता है, यहां चेतना का अर्थ ज्ञान से है तथा शक्ति का अर्थ मनस ऊर्जा से है, इसलिए हम मनुष्यों को चाहिए कि वह भगवान शिव एवं माता शक्ति को बाहर कहीं न ढूंढें बल्कि आध्यात्म को आत्मसात कर अपने-अपने मन के भावों को पवित्र रखें तथा जनकल्याण की सोच रखते हुए अपने कर्मो को अंजाम दें, माता पार्वती एवं भगवान शिव का आर्शीवाद स्वतः मिलता चला जायेगा। स्वच्छ प्रकृति, जल-वृष्टि, स्वस्थ प्राणवायु सहित जीवनोपयोगी संसाधन, शारीरिक आरोग्यता एवं जीवों के मन के आंनद का श्रोत प्राकृतिक वन्य जीव एवं वनस्पतियां हैं, इसलिए संसार के कल्याण हेतु स्वयं को शिवांश महसूस करके बनकर इस श्रावण मास में अधिकाधिक वृक्षों का रोपण एवं संरक्षण किया जाना चाहिए।
एस.वी.सिंह ‘‘प्रहरी’’