आधुनिकता का शिकार वैवाहिक लोकाचार

आधुनिकता का शिकार वैवाहिक लोकाचार....... जनवासा, खिचड़ी और महफ़िल कभी वैवाहिक समारोह की प्राथमिकता में हुआ करतें थे। किंतु अब शादी समारोहों में इन तीनों का पता ही नही है। पता तो उन मांगलिक गीतों का भी नही है जो महीने भर पहले से महिलाएं गाती थीं। मुझे एक गीत आज भी याद है,

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आधुनिकता का शिकार वैवाहिक लोकाचार…….
जनवासा, खिचड़ी और महफ़िल कभी वैवाहिक समारोह की प्राथमिकता में हुआ करतें थे। किंतु अब शादी समारोहों में इन तीनों का पता ही नही है। पता तो उन मांगलिक गीतों का भी नही है जो महीने भर पहले से महिलाएं गाती थीं। मुझे एक गीत आज भी याद है,

हटिए सेनुरा महंग भईले,
बाबा पियरी भईले अनमोल।

यह सब सुनने को अब कहां मिलेगा। समय बदला, समाज बदला, परिवेश बदला, परिवार बदला तो अगली पीढ़ी को कैसे इसका ज्ञान होगा। उन्हें कौन बताएगा कि ये मांगलिक कार्यक्रम यानी द्वारपूजा, खिचड़ी, जनवासा, महफिल, शास्त्रार्थ केवल आनंद-मजे के लिए नही होते थे बल्कि इनके जरिए लोगों की सक्रियता से कुछ नए संबंधों की नींव भी पड़ जाती थी, जिनके लिए आजकल शादी डाटकाम और वाट्सएप समूहों की जरूरत पड़ रही है। सच तो यह है कि मजबूरी में कुछ मान्यताएं स्थापित हो जाती थीं। यातायात के लिए संसाधनों का अभाव था। एक दिन बारात यानी वरयात्रा गंतव्य तक पहुंचती थी। द्वारपूजा के पहले हाथी-घोड़े की दौड़ होती थी, पटाखे छोड़े जाते थे। बैंड बाजे के बीच गोधूलि बेला में द्वारपूजा होती थी इस इस अवसर पर दोनो तरफ के पंडित शास्त्रार्थ में भिड़ जाते थे। इसके बाद वर-कन्या दोनो के अभिभावक हाथ जोड़कर दोनो पक्ष के पंडितों से निवेदन करते थे कि अगले कार्य को भी आप दोनों को संचालित करना है। पंडित जी लोगों को सादर दक्षिणा दी जाती थी।

एक घटना का स्मरण मुझे है। मेरे गांव में बारात आई थी। द्वार पूजा के अवसर पर द्वार पूजा शब्द में कौन समास है, इस पर शास्त्रार्थ छिड़ गया। वर पक्ष के पंडित जी कुछ मानने को तैयार नहीं थे। गांव के लोगों ने यह कहकर उन्हे मनाया कि बड़े पंडित जी बाहर गए हैं। और जब वे खिचड़ी यानी कल दूसरे दिन आ जाएंगे तब फिर इस पर शास्त्रार्थ होगा। इस पर पंडित जी कुपित होकर गांव से निकल गए। जब पंडित जी बाहर जा रहे थे तो कुछ ग्रामीण युवक यह कहकर पंडित जी को चिढ़ाने लगे कि बड़े पंडित जी के डर से भाग रहे हैं। दरअसल बड़े पंडित जी से आशय मेरे बड़े पिताजी से था। वे अच्छे विद्वान और वक्ता भी थे। लोग उन्हे पकड़ कर ले जाते थे। किशोरावस्था में ही वैवाहिक कार्यक्रमों में उनकी मांग बढ़ गई थी। एक बार गांव से बारात जा रही थी। उनसे बड़े लोग जो ज्ञान वृद्ध वयोवृद्ध थे बारात जाने से इंकार कर चुके थे।

दरअसल उस गांव में भी भूमिहार थे, और वे सब संस्कृतज्ञ थे, साथ में कर्मकांडी भी। इसलिए हमारे गांव के पंडित लोग किनारे हो गए। तब गांव के अति प्रतिष्ठित भूमिहार कुबेर शनाथ राय मेरे बड़े पिताजी के पास आए। वे उनके समउम्र भी थे। उन्होंने कहा कि महाराज गांव की नाक कट जायेगी। किसी तरह से बड़े पिताजी चलने को तैयार हो गए। वे बारात में पहुंचे। द्वारपूजा के और दान-दक्षिणा के बाद शास्त्रार्थ शुरू हो गया जो घंटों चलता रहा। उसके बाद उधर के एक वरिष्ठ पंडित ने पूछा पंडित क्वाः तव पु। अभी बड़े पिताजी कुछ उत्तर देते इसके पहले ही हमारे गांव के ही कुबेरनाथ राय के चचेरे अग्रज तीर्थराज राय ने उत्तर दे दिया, पत्तल चाट तू।दोनो पक्ष के लोग हस पड़े। कुबेर नाथ राय तो यहां तक कह गए कि इस गांव में कोई पंडित आने को तैयार नहीं होता, कैसे विद्वान को हम ले आए है। खैर, कन्या पक्ष के लोगों ने प्रचुर दक्षिणा दी। साथ में क्षमा याचना भी की।

द्वारपूजा के पश्चात आज्ञा का कार्यक्रम होता था। उसके बाद नापित यानी हजाम विवाह के लिए आमंत्रण लेकर आता था। वर का बड़ा भाई जाता था, गुरहत्थी होती थी। फिर डाल पूजा होती थी। इसके बाद वर-वधू चौके पर आते थे। लावा संस्कार और पाणिग्रहण होता था। इसके अलावा अन्य धार्मिक कर्मकांड होते-होते पूरी रात बीत जाती थी। एक ओर पंडित जी लोगों गोत्रोच्चार करते थे और दूसरी तरफ महिलाएं मंगल गीत गाती थीं। मुझे याद है गाना,

जरा टार्च दिखाओ मैं डाल देखूंगी।
एक और गीत की एक पंक्ति भी सामने आ गई,
घुमत रहले अहरी डहरी,
सुंदर कनिया पवले हो।
छक्का-छवड़ी पुता मोर,
गौरा लूटे अइलें हो।
अब विवाह में यह सब कहां देखने को मिलता है। अब तो बारात ही दस बजे रात को पहुंचती है। फिर द्वारपूजा के बाद फोटो सेशन शुरू होता है।जिसके सामने कर्मकाण्ड गौड़ हो जाता है। प्रायः यह अपेक्षा की जाती है कि पंडित जी जरा जल्दी ही रहे। सिंदूरदान के बाद आशीर्वाद का क्रम चलता था। वर-बधू को अक्षत के जरिए आशीर्वाद दिया जाता था। वहीं बारात में आए लोग और आस पास के ग्रामीण नाच-गाना का आनंद लेते थे। नई पीढ़ी को तो यह पता ही नहीं है कि लोकाचार वेद से भी ऊपर माना जाता है।

सबसे जोरदार खिचड़ी की रस्म मानी जाती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश व समूचे विहार में प्रचलित है। इसमें वर और सहबाला यानी वर के छोटे भाई को खिचड़ी खिलाई जाती थी। खिचड़ी खाते समय वर कुछ क्षण के लिए नाराज होता था। बधू पक्ष के लोग उसे मनाते थे। कभी-कभी वर की नाराजगी कन्या पक्ष को महंगी पड़ जाती थी। इस दौरान वर अपने उपयोग की सामग्री मांगता था। नहीं देने पर बात बढ़ जाती थी और अंततः काफी मान-मनौव्वल के बाद वर खिचड़ी खाता था। कुछ ऐसे लोग भी बारात में जाते थे जो लगाने-बुझाने में जुटे रहते थे और वे इसी में आनंद लेते थे। सामान्यतया वर किशोरावस्था का ही होता था। मेरे एक अभिन्न मित्र अपनी शादी में खिचड़ी खाते समय किसी के चढ़ाने पर ट्रेन मांग रहे थे। दरअसल जो उनको प्रेरणा दे रहे थे यानी उकसा रहे थे, उनकी कुटिल चाल को हमारे मित्र समझ नही पाए। मेरे मित्र ट्रेन के लिए हठ कर बैठे। स्थिति बिगड़ते देख कन्या पक्ष के एक बुजुर्ग ने मोर्चा सभाला। उसने कहा अगले साल यानी गवना के पहले आपके घर ट्रेन पहुंच जाएगी। बस एक छोटी सी शर्त है कि गवना के पहले रेल की पटरी आपके घर तक बिछ जानी चाहिए। अब खिचड़ी खाइए। वर महोदय ने खिचड़ी खा लिया। उकसाने वाले वहां से चुपचाप निकल लिए। लेकिन वर के फूफा और मौसा दोनो बड़े नाराज हुए। घर आने पर वर की कुटाई भी हुई। लड़के के मामा कहते थे कि इतना बड़ा मूर्ख कौन होगा जो दूसरे के सिखाने पर अपना सत्यानाश कर लें।

इसके बाद महफिल सजती थी। इसमें प्रश्नोत्तर, कविता, कहानी का दौर चलता था। और इसमें किसी भावी वर की तलाश हो जाती थी। इसमें कवि, भट्ट, कत्थक, नर्तक भी जुटते थे। मुझे याद है कि मेरे बड़े भाई के विवाह में वीर रसावतार पंडित श्याम नारायण पांडेय, भोजपुरी के सिद्ध हस्त कवि धर्मदेव मिश्र कमलेश, शिव नंदन सिंह विजई, जनार्दन पांडेय अनुरागी ने जमकर काव्य पाठ किया था। लवकुश के अमर गायक तारकेश्वर मिश्र राही तो घर के अधिसंख्य मांगलिक कार्यों में उपस्थित रहते थे। दरअसल मेरे बड़े पिताजी का साहित्यकारों और गुणिजनों से बेहद लगाव था। बड़े पिताजी पंडित हृदय नारायण चौबे इन लोगो को जुटा लिया करते थे। वे कहते थे कि बारात की शोभा के साथ वर-वधू को आशीर्वाद भी जरूरी है। इसलिए वाचन पर जोर देते थे। इन कवियों से उनका आत्मीय लगाव था। लोग बताते है कि कवि जी यानी श्याम नारायण पांडेय तो मेरे पिता जी की बारात में गए थे। बड़े भाई के विवाह में तो उन्होंने माहौल को चौपट कर दिया। लोगो के बड़े आग्रह पर उन्होंने एक कविता सुनाई,
नाचो-नाचो रे कन्हैया,
मैं बलैया लूंगी न।
इसके बाद तो किसी भी मांगलिक समारोह में वे नही दिखे।

अशोक कुमार चौबे, वाराणसी