बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं…

बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं... ******* * उमर अब्दुल्ला ने इवीएम को दोष देने के लिए कांग्रेस को लगाई है लताड़ * फारूक अब्दुल्ला की भी सोच में बदलाव सियासी तब्दीली का संकेत * पाक से वार्ता के हिमायती फारूक को अब उसकी नीयत में दिखती है खोट * फारुख कहते हैं कि केंद्र से टकराव होने में सूबे का भला नहीं होगा

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नयी दिल्ली। जम्मू-कश्मीर की सियासत में अहम् स्थान रखने वाले अब्दुल्ला खानदान के सुर अब बदले-बदले से हैं। उमर अब्दुल्ला को जहां इवीएम पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का प्रलाप अच्छा नहीं लग रहा है। वहीं फारुख कहते हैं कि केंद्र से टकराव करके सूबे का भला नहीं हो सकता। हम मिलकर ही कुछ कर सकते हैं। पाकिस्तान से वार्ता के हिमायती रहे फारुख अब उसे सुथर जाने की नसीहत भी देते हैं। ये अलग बात है कि अब्दुल्ला खानदान की सियासी मजबूरियां बीच में कुछ तल्ख टिप्पणियां भी करा देती हैं किंतु इतना तो राजनीति में चलता है। पर अब उनके सुर अब काफी नरम से हैं। इधर कांग्रेस से उनकी बढ़ती दूरियों के चलते भी नये सियासी समीकरणों की आहट आ रही है। नेशनल कांफ्रेंस के साथ चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस राज्य की सत्ता में भागीदार नहीं बनी है। इसलिए भी दोनों पार्टियों के सम्बंधों पर नये सिरे से चर्चा होने लगी है।

जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि कांग्रेस अब इवीएम का रोना छोड़ें। अगर इवीएम से कांग्रेस को इतनी ही दिक्कत है तो वह चुनाव ही क्यों लड़ती है। कांग्रेस इस तरह अपनी हार का दोष इवीएम को नहीं दे सकती। उन्होंने कहा कि इवीएम पर इस तरह का दोहरा रवैया नहीं चल सकता। जीते तो इवीएम ठीक और हारे तो खराब। ऐसा रवैया ठीक नहीं है। उधर कांग्रेस ने उमर अब्दुल्ला के इवीएम वाले बयान पर कहा है कि यह उनके बदलते रुख का परिचायक है। परंतु इस मसले पर इंडी गठबंधन एक राय है कि चुनाव बैलेट पेपर से ही होने चाहिए। खैर, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारूक और उनके मुख्यमंत्री पुत्र इन दिनों बदले-बदले से नजर आ रहे हैं, यह बात दिख रही है। अब उनकी बोली में पहले जैसी तल्खी नहीं है। वे अब नरम हैं और पड़ोसी देश पाकिस्तान पर गरम हैं। गरम शायद इसलिए कि उनकी सरकार आने के बाद आतंकी हमले बढ़ गये हैं। कहीं न कहीं उन्हें यह लगता है कि यह उनकी सरकार को बदनाम करने के लिए पाकिस्तान की चाल है।

फारुख तो अब इतने बदल गए हैं कि उन्होंने चुनाव जीतने के बाद राज्य की जनता को दीपावली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाने के लिए प्रेरित किया ताकि माता लक्ष्मी प्रसन्न हों और सूबे का सौहार्द बना रहे। अब तो उनका यह भी मानना है की जम्मू कश्मीर की भलाई के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार को मिलकर चलना चाहिए। शायद यही वजह है कि भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़कर सूबे में सरकार बनाने वाले अब्दुल्लाओं ने महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव की बाबत ऐसा कोई बयान नहीं दिया जिससे ये कहा जा सके कि वे भाजपा या केंद्र सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं। उधर गठबंधन में चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस सरकार में शामिल नहीं है। खैर, नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारुख अब अचानक राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हो गए हैं और राष्ट्रीयता की बातें करने लगे हैं। पत्रकारों से वे कहते हैं कि अब यहां पर जो भी आतंकवादी आएगा मारा जाएगा, हम उनकी आरती थोड़े ही उतरेंगे। और पाकिस्तान को भी यह बात समझ लेनी चाहिए कि अगर वह भारत से संबंध अच्छे करना चाहता है तो उसे आतंकवाद का रास्ता बंद करना होगा। फारुख ने कहा है कि देश के अमन के दुश्मनों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि अब उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब मिलेगा। बताते हैं कि इसीलिए फारूक ने बडगाम आतंकी हमले की भी जांच की मांग की थी और कहा था कि उन्हें संदेह है कि यह उन लोगों द्वारा किया गया है जो हमारी सरकार को अस्थिर करने की साज़िश कर रहे हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि पकड़े आतंकवादियों से पूछताछ से हमले को अंजाम देने वाले नेटवर्क के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। इसके मास्टरमाइंड को उजागर किया जा सकता है। फारूक अब्दुल्ला ने इसीलिए कहा था कि आतंकवादियों को मारने की बजाए पकड़ना चाहिए ताकि इसके मास्टरमाइंड को उजागर किया जा सके। हालांकि तब भाजपा ने उनके इस बयान पर नाराजगी जताई थी और कहा था कि उनका यह बयान गैर जिम्मेदाराना है। पार्टी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने कहा था कि फारुख अब्दुल्ला को आतंक और आतंकवादियों की सफाई में मदद करनी चाहिए। यदि उनके पास साजिश का कोई इनपुट हो तो जरूर बताएं। उस दिशा में जरूर कार्रवाई की जाएगी।

खैर, ये वही फारूक अब्दुल्ला हैं जो कहते थे कि पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते बनाने के लिए हमें बातचीत की पहल करनी चाहिए। चुनाव के पूर्व फारुख कहा करते थे कि अगर हम चीन से बात कर सकते हैं तो पाकिस्तान से क्यों नहीं। जब दोनों तरफ से गोलियां चलती हैं तो मरता आम कश्मीरी ही है। उनका तो यहां तक कहना था कि सुरक्षा बलों की गोलियों से जो नौजवान मरता है, वह भटका हुआ कश्मीरी है। हमें उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना चाहिए। गोली किसी समस्या का इलाज नहीं है। वे सरकार बनने के पहले केंद्र सरकार की नीतियों को पानी पी-पीकर कोसते थे, पर अब ऐसा नहीं है। वे केंद्र के साथ मिलकर काम करने के हिमायती हो गये है ताकि सूबे का भला हो। फारूक अब्दुल्ला का साफ कहना है कि टकराव के रास्ते से जम्मू कश्मीर का विकास नहीं होगा। बताते हैं कि इसीलिए सूबे के नए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। इसके बाद जब वे मीडिया से मुखातिब थे तो आत्मविश्वास से लबरेज लग रहे थे। उन्होंने बताया कि हमारी मुलाकात बहुत अच्छी रही। और हम संतुष्ट हैं।

जानकार इसे उनकी भाजपा के साथ बढ़ती नजदीकियों की नींव बता रहे हैं। हालांकि कुछ जानकार इसके पीछे कांग्रेस से उनकी खटपट को जिम्मेदार बता रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि खटपट के चलते ही कांग्रेस सरकार में शामिल नहीं हुई है। बताते हैं कि कांग्रेस की महत्वाकांक्षा कुछ ज्यादा थी। उसे डिप्टी सीएम का पद चाहिए था जिसके लिए उमर और फारूक तैयार नहीं थे। इसी से नाराज होकर कांग्रेस ने सरकार में शामिल होने से मना कर दिया। और कहा कि हम बाहर से समर्थन करेंगे। वैसे भी उमर अब्दुल्ला की सरकार को कांग्रेस के समर्थन की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसके पास बिना कांग्रेस के भी बहुमत है। कुल मिलाकर जम्मू कश्मीर के लिए यह सकारात्मक संकेत है। कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल और आवश्यकताओं का मेल है। अब शायद जम्मू कश्मीर में कुछ नए सियासी समीकरण बनते दिखाई दे रहे हैं। इवीएम को लेकर उमर अब्दुल्ला का ताजा बयान इसी ओर संकेत दे रहा है। शायद उनको भी समझ में आ गया है कि कश्मीर घाटी में तो हम सुरक्षित हैं। और जम्मू क्षेत्र में हम बहुत कुछ कर भी नहीं पा रहे हैं। तो उसे क्यों न उसे भाजपा के लिए छोड़कर अच्छे संबंध बना लिए जाएं। क्योंकि सरकार चलाने के लिए केंद्र का मजबूत साथ होना बहुत जरूरी है। ऐसे में तो और भी जरूरी है जब कानून व्यवस्था केंद्र सरकार के पास है। खबर है कि उनके लोगों ने उन्हें समझाया है कि भाजपा इस समय उगता हुआ सूरज है। और उसके साथ रहने में भलाई है। सच्चाई भी यही है कि उमर की सरकार को निर्बाध चलते रहने के लिए केंद्र की मदद चाहिए ही। उधर भाजपा को भी सूबे में अपनी पैठ और मजबूत करने के लिए एक राजनीतिक साथी चाहिए। राजनीतिक इस समीकरण को ज्यादा प्रेक्टिकल भी मान रहे हैं। उनका कहना है कि केंद्र की मोदी सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार के कार्यकाल में भी सिर्फ कुछ महीनों का अंतर है। ऐसे में दोनों को एक-दूसरे की जरूरत पड़ती रहेगी।

ऐसे में फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के तेवरों में बदलाव किसी नई कहानी का संकेत लगता है। इसीलिए शायद अब उन्हें भाजपा में बहुत खोट नहीं दिखती। शायद यह उनकी राजनीतिक चाल है कि किसी तरह सूबे को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाए। ताकि नेशनल कांफ्रेंस पूरी तौर पर सूबे की सत्ता पर काबिज हो सके। क्योंकि अभी तक उसके पास सूबे की आंतरिक सुरक्षा नहीं है, यह उपराज्यपाल के पास है। और इसके अलावा भी सरकार को तमाम मामलों में शुरुआत करने के लिए उपराज्यपाल की सहमति जरूरी है। इस बदलाव का कारण जो भी हो पर यह बदलाव सूबे के लिए अच्छा है। क्योंकि सूबाई और केंद्र की सरकार दोनों मिलकर जम्मू कश्मीर का ज्यादा से ज्यादा भला कर सकते हैं। परंतु इसके लिए पहले कश्मीरी पंडितों की वापसी की दिशा में भी ठोस प्रयास करने होंगे। तभी मुकम्मल जम्मू कश्मीर की कल्पना कर सकते हैं। अब सीमा पार बैठे आतंकियों के आकाओं को भी यह समझ लेना होगा कि झेलम और चेनाब में अब बहुत पानी बह चुका है।

गौरव शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार